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________________ ( १०५॥ लगी हुइ अशुभ कर्म वर्गणाको पाप कहते हैं यह जीवको दुःख देने वाला है पाठकगण-सारयादि मतके तत्वोंको एक्के पिच एकको मिलाने के लिये अट तैयार होगये थे और उनके तत्वोंको एक दम तोडडालेथे अब अपने मन्तव्योंकी तरफ खयाल क्यों नहीं करते ? आपने अलादा अलादा पुण्य पापको दो तत्व माने है इनका समावेश बन्ध तत्वम बाबूगी होसक्ता है फिर उनको अलगदा तल मानकर मुफत दो तत्व बढानेकी क्या जरुरत थी? लेखक-मिय पाठकगण ! आपका कथन ठीक है पेगक चन्न तत्वमें इनका समावेश हो सका था मगर फिरभी इनको जलादा गिने दस्में सास सबर है. पाठकगण-पतलाइये क्या सवा है ? लेग्यक-लीजिये ! सपर यह है कि इस दुनियाम कडएक सरस सिरफ पुण्यको हि मानते है तो दूसरी तरफ का एक सिरफ पापको हि मानते है और कई एक पुण्य पापको जापस आपसमें मिले हुए मानते है और कहते है कि वो मित्र मुख दु ग्वसा कारण होताहै कई एकीका यह मन्तव्य है कि इस दुनिया फर्मही नहीं है और जगत्की रचनाको यो स्त्रा. भाविषी मानते है इन लोकोंका मन्तव्य ठीकनहीं है क्यों कि
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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