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________________ जिसे फिर विभाग न होसके एसा एक सूक्ष्म भाग ! अनी वतत्त्वका दुसरा भेद अधर्मास्तिकाय है यहभी एक अरूपी द्रव्य है जो जीव और पुलह के स्थिर रहनेमें सहायक है जैसे मछलीको जलके निचेका स्थल अथवा मुसाफिरको दरख्त कीन्छाया मददगार होती है ईस्कभी स्कन्ध देश और प्रदेश येह तीन भेद लिये जाते है और यहभी लोक व्यापी है आकाशास्तिकाय लोकालोक व्यापी और पुद्गलको अवकाश देनेवाला तीसरा भेद माना जाता है जिसमें जीव-धर्म-अधर्म आकाश-काल-गौर पुद्गल येह छीद्रव्य होते है अलोकमें सिरफ आकाशहि है धर्मा धर्मके न होनेसे इस्में जीव और पुद्गलगी हरक्त व कायम रहना नहीं होसक्ता है इसीलिगे कर्मों से मुक्त हुआ आत्मा ऊर्वगमन स्वभावसे उडता हुआ लोरके अन्तमें जा ठहरता है आग नही जासक्ता चुके चलनेमें मददगार धर्मास्तिकाय नामका पदार्थ इससे उपरफे भागमें नहीं होता अगर ऐसा नहीं माना जाता तो फिर मोक्षगामी की कहीं भी स्थिति नरहती ! और आजतक हमें यही कहना रहताफि मोक्षगामी जीव चलही जारहे है. कई आचार्य का लको द्रव्य नहीं मानते हैं किन्तु एसा कहते है कि जीवास्तिपाय धर्मास्तिकायादिक नवपुराण आदि पर्यायोंफोहि फाल कहना चाहिये ! इनके मतम पांच द्रव्यात्महि लोक है मगर जो काल द्रव्यको मानते हैं उनके मतमें छद्रयात्मक लोक है
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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