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________________ "नो भावये नो वि अ भाविअप्पा, अकोउहल्ले अ सया स पुज्जो।" प्राचार्य न तो किसी की प्रशंसावलियों का गान करता है और न ही किसी से प्रशंसावलिया सुनता है, वह संसार के खेलो में मन को नहीं रमाता, वह समस्त जीवनलीलाओं को देखता है निस्पृह भाव से । ५. वाचना-सम्पदा-मधुरभाषी ही दूसरों को श्रुतज्ञान दे सकता है । शिष्यो को शास्त्र आदि पढ़ाने की योग्यता को वाचना-सम्पदा कहते हैं। शिष्य की रुचि एवं योग्यता देखकर ही अध्ययन कराना, जिसकी जैसी योग्यता हो उसे वैसा ही शास्त्र पढ़ाना, पूर्व-अपर अर्थ की संगति करके पढाना, धारणा-शक्ति देखकर पढ़ाना, मनोवैज्ञानिक रीति से पढ़ाना, जिससे शिष्य को भी लाभ हो और अपना परिश्रम भी सफल हो। प्राचार्य में पढ़ाने की कला अन्यों से विलक्षण होनी चाहिए। ६. मति-सम्पदा । बुद्धि , पूर्वक शिष्य को वाचना देने से ही विद्वत्ता चरितार्थ होती है । मति-ज्ञान की विशिष्टता ही मति-संपदा है । विषय को ग्रहण करने की विशिष्ट शक्ति, उस पर पर्यालोचन करने की विलक्षण प्रतिभा, निश्चय करने की प्रबल शक्ति, अद्भुत स्मरण शक्ति, इन्हें ही क्रमश: अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा कहते हैं । ये चारों गुण मति-सम्पदा के अंग है। नमस्कार मन्त्र [६७
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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