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________________ सस्कृति के किसी महर्षि ने भी कहा है-"प्राचार-हीन न' पुनन्ति वेदा"- प्राचारहीन को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते । आचार-हीन के श्र न-ज्ञान की गर्दभ पर लदे चन्दन मे समता की गई है। गणी या प्राचार्य को आगमों का पारगामी होना चाहिए। जिसने सभी प्रागम-शास्त्रों का अध्ययन कर लिया हो, आगमो को जिसने अपने नाम की तरह कण्ठस्थ कर लिया हो, जिसने शास्त्रीय ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली हो, जिसका पाठो का उच्चारण बिल्कुल शुद्ध हो, वही श्र तसंपदा से युक्त माना जाता है और तभी वह धर्म प्रचार करने में समर्थ हो सकता है। प्राचार्य आचरण ही नहीं, करता, अपितु दूसरों से भी आचरण करवाता है । वह ज्ञान-सम्पत्ति का अर्जन ही नहीं करता, उसका विसर्जन भी करता है। उसे योग्य व्यक्तियों को बांटता भी है, परन्तु उसी दशा में जबकि वह स्वयं 'सुत्तत्थविऊ' हो । जिसके पास कुछ है, वही दातव्य और देने योग्य पात्र का विचार भी करेगा। जिसके पास कुछ है ही नहीं वह देगा भी क्या ? जिसका अपना ज्ञान-कोष पूर्ण हो चुका है, वह ज्ञान के वितरण की शैली पर भी विचार करेगा, उसकी विधि निर्धारित करेगा, उसे विचारपूर्वक योग्य व्यक्ति को ही बांटेगा, वह कभी कच्चे घड़े मे पानी भरने की भूल न करेगा। वह जिज्ञासाशीलों को उतना ही देगा जितना उनके लिए उपयुक्त होगा, जितने को वे अपने ज्ञाननमस्कार मन्त्र] [६१
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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