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________________ रागद्वेष आदि विकारों से निवृत्त नह हुए ऐसे स्थविरकल्पी साधु-वर्ग के लिये शासक के रूप में प्राचार्य की आवश्यकता रहती है, अन्यथा श्रीसंघ में अहता, ममता, अविनयता और स्वच्छन्दता बढ़ जाती है, जिसके कारण मूलगुणों और उत्तर गुणों मे शैथिल्य का हो जाना स्वाभाविक है, अतः प्राचार्य के होने पर संघ-व्यवस्था बिल्कुल ठीक चलती है। उपाध्याय भी साधकों में उच्चसाधक होते हैं, वे साधकों के अन्तर्मन में ज्ञान का प्रकाश भरते है, दूसरों को ज्ञान से प्रकाशित करते हैं। जो दीपक स्वयं प्रकाशमान है वह हजारों अन्य दीपको को ज्योतित होने में सहायता दे सकता है। जो दूसरो के शंका समाधान करने में कुशल है, शास्त्रार्थ कला में निपुण है, स्याद्वाद रहस्य का वेत्ता है, प्रागम-शास्त्रों का पारगामी है, अर्थ में मधुरता एवं सरलता लाने वाला है, वचन बोलने में चतुर है, वक्तृत्वकला में निष्णात है, वही चारित्र-शिरोमणि साधक उपाध्याय पद को सुशोभित करता है । उपाध्याय के बिना सघ में पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था नहीं चल सकती । ज्ञान के बिना चारित्र की आराधना नहीं हो पाती, अतः प्राचार्य एवं उपाध्याय भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते है। सुदेव और सुगुरु विश्व भर में जितने भी जीव हैं, वे चार प्रकार के हैं१. अविकसित, २. विकसिताविकसित, ३. विकसित, १७४] [ षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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