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________________ और न होगा, जबकि इन पांच पदो में से एक, दो, तीन या चार ही पद रह गए हों या रह जाएंगे। ये पद पंचास्तिकाय की तरह शाश्वत हैं, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा और काल की अपेक्षा सादि भी । इस दृष्टि से पांचो पद सादि है और अनादि भी हैं। परमेष्ठी पद जब अनादि कालीन है तब उनकी संज्ञा भी अनादि काल से नियत है। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीनों में परस्पर अनेक अंशों में समानता एवं एकता भी है ? क्योकि तीनों के अंतरंग कारण प्रायः समान हैं। महाव्रत. तप, चारित्र, मूलगुण, उत्तरगुण, संयम, समता, सहिष्णुता, आहार आदि का सविधि ग्रहण, क्रोध आदि काषायों पर विजय, क्षमादि दश धर्म, रत्नत्रय, छः कायों में यतना, जितेन्द्रियता, इन सब बातों की अपेक्षा तीन पदों में एकता एवं समानता है, क्योकि तीनों में साधुता है। फिर भी लोक-व्यवहार में जैसे शासक की आवश्यकता रहती है, तभी जनता अनुशासन का पालन कर सकती है, इससे सज्जनों की रक्षा होती है और दुर्जन दण्डित होते है। शासक के बिना राष्ट्र में अराजकता फैल जाती है । जैसे ही साधक वर्गो मे भी सब की शक्ति, सबकी वृत्ति, सबकी धृति तुल्य नहीं होती । जो राग-द्वेष प्रादि विकारों से निवृत्त है वे उच्च-साधक हैं, वे जिनकल्पी की तरह बिना शासक के भी निरतर साधना में तल्लीन रहते है, किन्तु जो नमस्कार मन्त्र ] [१७३
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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