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________________ साधु को उपमित किया है। १. जैसे पृथ्वी छेदन-भेदन आदि कष्टों को सहन करती है, वैसे ही साधु भी परीषह-उपसर्गों को समभाव से सहन करता है। २. जैसे पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण होती है, वैसे ही साधु भी शम, दम, संवेग, निर्वेद आदि अनेक सद्गुणों से परिपूर्ण होता है। ३. जैसे पृथ्वी समस्त बीजों की उत्पत्ति का कारण है, वैसे ही साधु भी समस्त सुख देने वाले बोधिबीज-धर्मबीज की उत्पत्ति का कारण है। ४. जिस तरह पृथ्वी अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करती, उसी तरह साधु भी ममत्व-भाव से कभी भी अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करता। ५. जैसे पृथ्वी का यदि कोई छेदन-भेदन करता है तो वह किसी के पास न शिकायत करती है और न फर्याद, वैसे ही साधु भी किसी के द्वारा कष्ट, अपमान आदि करने पर गृहस्थों या स्वजनों के पास जा कर न शिकायत करता है और न फर्याद ही। ६. जैसे पृथ्वी अन्य संयोगों से उत्पन्न होने वाले कीचड़ को नष्ट करती है, वैसे ही साधु भी राग-द्वेष, क्लेश आदि कीचड़ का नाश कर देता है। नमस्कार मन्त्र] [१५७
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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