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________________ लक्ष्य की प्रोर बढ़ते ही जाते हैं । जब तक आत्म-गुण पूर्णतया विकसित नहीं हो जाते, तब तक मानव मानवता की परिधि में ही रहता है, जब वे गुण ससीम से असीम हो जाते है, तब वह साधक भगवत्-पदवी को प्राप्त कर लेता है। ___ यद्यपि साधु दीखने में सामान्य मानव की तरह ही होता है, परन्तु उसकी आत्मा से असीम गुणों की अजस्र धारा प्रवाहित होकर संयम के समुद्र में मिलकर शान्त एव गम्भीर हो जाती है, फिर उसमें नानाविध साधना के रत्नों का उद्गम हो जाता है, वह अपनी प्रत्येक भावनाके साथ दुर्गुणों की सीपियों और कौडियों को बाहर फैकते हुए अपने को भगवत्-पद प्राप्ति के योग्य' बना लेता है। साधु के इसी महान् श्रम को देखकर उसे. 'श्रमण' कहा गया है और ऐसे श्रमणों को ही पंचम-पद. द्वारा नमस्कार किया जाता है। श्रमण को चौरासी उपमाएं उरग - गिरि - जलण - सागर; नहतल-तरुगण. समो य जो होइ । भमर - मिय - धरणी - जलरुह, रवि-पवण समो य सो समणों । (अनुयोगद्वार) श्रमण के लिये बारह मौलिक उपमाएं हैं, उनमें से [ षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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