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________________ को स्पर्श करनेवाले होते हैं । शरीर पर जितना राग न्यूनतम होगा, दुःखानुभव उतना ही कम होगा और निमित्त कारण मिलने पर द्वेष भी उतना ही कम होगा। जिसका शरीर पर राग नहीं, वह कष्टों से और मृत्यु से बिल्कुल भयभीत नहीं होता और न मारणान्तिक वेदना ही उसको लक्ष्य से परिभ्रप्ट कर सकती है। समभाव ही साधु का सब से बड़ा प्राश्रय है । सदैव मध्यस्थ बन के रहना ही समता है । प्रकारान्तर से साधु के सत्ताईस गुण प्राचार्य हरिभद्र ने हरिभद्रीय आवश्यक भाष्य मे जिन सत्ताईस गुणों की नामावली दी है, उसमें कुछ तो वही के वही गुण है जिनका नामनिर्देश ऊपर किया जा चुका है और कुछ नए भी है। जिन गुणों की व्याख्या हो चुकी है उनका पुन: विवेचन पुनरुक्ति के कारण न करके उनका तो केवल नाम निर्देश कर देना ही उचित समझता हूं। जिन की विवेचना पहले नहीं हुई उनका ही विश्लेषण यहां पर किया जा रहा है १. अहिंसा महाव्रत, २. सत्य महाव्रत, ३. अस्तेय महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५. अपरिग्रह महाव्रत ।। तीन शब्द हैं-व्रत, अणुव्रत और महाव्रत । आन्तरिक एवं बाह्य दोषों, पापों तथा भूलों से निवृत्त होना व्रत है, प्रांशिकरूप से उनका त्याग करना अणुव्रत है और पूर्णतया उनका त्याग करना महावत है । नमस्कार मन्त्र] [ १२७
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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