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________________ है, क्योंकि अग्नि का स्वभाव ऊपर उठना है। अग्नि-शिखा सदा ऊपर ही उठती है, अत: इससे सम्बद्ध होकर मानवीय चेतना ऊर्ध्वगामिनी बन जाती है। यही कारण है कि जैन संस्कृति ही जल के कम से कम प्रयोग का आदेश देती है, क्योंकि अग्नि के साथ जल का मेल नही बैठता है। यही कारण है कि जैन साधु के लिए स्नान तक का विधान नहीं है, उसे शीतल नहीं होना, उसे तपना है, उसने 'अग्नि' तत्त्व के साथ ऊपर जाना है। संसार की कोई भी संस्कृति व्रतोपवास मे पानी का निषेध नही करती, तेजस्-तत्त्व प्रधान जन सस्कृति ने ही जल-रहित उपवास के तप का विधान किया है । जैनो के सभी तीर्थ रूखे-सूखे पहाड़ों पर है, नदियों के किनारे नही, क्योकि 'र' रूप विद्युत्-धारा के साथ जुड़ कर ऊचे उठने के प्रयास मे निम्नगामी स्वभाव वाला जल वाधक तत्त्व ही सिद्ध होता है । यही कारण है कि जप-गणना के समय अग्नितत्त्व-प्रधान लोगों के प्रयोग की परम्परा जैन सस्कृति को मान्य है। जप के नाना रूप नवकार मन्त्र की मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र इन तीनों रूपों में साधना की जाती है । सर्व प्रथम मन्त्र रूप में इसके जप को आवश्यक माना गया है। अरिहन्त को नमस्कार करके साधक प्ररिहन्त के चरणों में अपने को समर्पित करके अहं से शून्य हो जाता है । अहं-शून्यता की अवस्था में ही तो ग्यारह]
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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