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________________ "देशाटनं सोऽन्त्यगः” के सिद्धान्तानुसार सगण लम्बी यात्रा का विधायक माना जाता है। इस प्रकार साधक की आत्मा 'नमो अरिहन्ताणं' कह कर साधना-पथ पर यात्रा करके बढ़ते हुए सिद्धत्व के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेती है । यही कारण है कि 'अरिहन्त' सिद्धत्व तक पहुंचने का माध्यम एवं प्राश्रय होने से उसे पहला स्थान दिया गया है।। 'नमो सिद्धाण' कह कर मन्त्र-साधक सिद्धो के साथ अपने तादात्म्य की भावना को जागृत करता है और इस प्रकार उस महान् विराट् शक्ति के साथ पुन: अवतरणप्रकिया को अपनाता हुआ पहले प्राचार्यों को, फिर उपाध्यायों को और फिर साधुओं को नमस्कार करके दिव्य शक्ति के अवतरण की प्रक्रिया को पूर्ण कर अपनी ध्वन्यात्मक विद्युत-धारा को एक सामूहिक विराट् शक्ति के साथ सम्बद्ध करके स्वयं भी विराट् बन जाता है-पान्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया को पूर्ण कर लेता है । अतः पंच परमेष्ठी की जप-प्रक्रिया विराट् साधना का महत्त्वपूर्ण रूप है। जैन साधना किसी देवता का नहीं देवत्व का आत्मा में अवतरण स्वीकार करती है, अरिहन्त से यात्रा प्रारम्भ करके साधुत्व पर पूर्ण हुई यात्रा विराट् शक्ति का अवतरण ही तो है। यहां यह भी स्मरणीय है कि 'अरिहं' पृथ्वी और प्राकाश के बीच में 'र' इस अग्नि बीज को स्थापित करता दस ]
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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