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________________ २०. मन:समाधारणता-समाधारणता, यह जैना गमों का पारिभाषिक शब्द है। योगों की एकाग्रता, जिससे अशुभ और शुभ दोनों कर्म-प्रकृतियों का प्रवाह रुक जाए, केवल कर्म-निर्जरा की प्रक्रिया शेष रह जाय तो उस अवस्था का नाम समाधारणता है। मन । प्रागमोक्त सद्भावों में भली-भांति लगाना, मन:-समाधारणता है। इस से मन एकाग्र हो जाता है । जब मन ज्ञान के विविध प्रकारो में सलग्न हो जाता है, तब सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है और मिथ्यादर्शन सर्वथा क्षीण हो जाता है । २१. वचन-समाधारणता-वाणी को स्वाध्याय में भली भांति लगाना वचन-समाधारणता है। इसके द्वारा जीव सम्यग्दर्शन के प्रकारो को विशुद्ध करता है । बोधि की सुलभता को प्राप्त करता है और दुर्लभ बोधि कर्म-प्रकृतियों को क्षीण करता है। २२. काय समाधारणता-संयम-योगों में काया को अच्छी तरह लगाना काय-समाधारणता है । इस से साधक चारित्र के सभी प्रकारों को विशुद्ध करता है । वह इतनी विशुद्धि कर लेता है जिस में उसे यथाख्यात चारित्र अर्थात् वीतरागता की प्राप्ति हो जाती है। जब वीतरागता अंतमुहूर्त की सीमा का अतिक्रमण कर निःसीम हो जाती है, तब साधक आठों कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाता है । सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर साधक सब दुखों का अंत कर देता है । १२४ ] [ षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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