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________________ माया-चारिता नहीं होती है, वह करण सत्य है। इसकी सिद्धि होने पर योग-सत्य का होना अनिवार्य है। १७. योग सत्य-जो सत्य मन में हो, वही वाणी में हो और वही शारीरिक क्रियाओं मे हो। अथवा मन की शुभ प्रवृत्ति को ही योगसत्य कहा जाता है। इससे जीवन मे नि.सीम क्षमा का अवतरण हो जाता है। १८. क्षमा-ग्रहकार छोड़ने पर क्षमा याचना की भावना जागृत हो जाती है, क्रोध एवं अभिमान छोड़ने पर ही दूसरे को क्षमा किया जा सकता है, अत: विनम्रता और उदारता ये दो क्षमा के मुख्य अंग हैं । "क्षमा वीरस्य भूषणम्" इसलिए साधुता की कसौटी भी क्षमा ही है, अत: यह गुण साधु मे होना अनिवार्य है। क्षमा का उदय अभिमान और सांसारिकता से विरक्त होने पर ही होता है, अतः अब विरक्ति का स्वरूप बतलाया जाता है। १६. विरागता - सांसारिक कामधन्धों से, कामभोगों के प्रारम्भ एव परिग्रह से अथवा जगत की एवं काम की प्रसारता के ज्ञान से विरक्ति धारण करना ही विरागता है। सांसारिक काम-भोगो तथा स्वर्गीय काम-भोगों से पूर्णतया विरक्त होने की प्रक्रिया ही विरागता है। परम एवं चरम लक्ष्य की ओर अभिमुख होना ही एकाग्रता है । अतः अब मन की एकाग्रता का वर्णन करते हैं । नमस्कार मन्त्र] [१२३
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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