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________________ पहिंसा और सत्य महाव्रत की आराधना नहीं हो सकती है । ४. सर्वत:-मैथुन-विरमण-महाव्रत-स्त्री या पुरुष का पारस्परिक शारीरिक सहवास मैथुन कहलाता है । कामवासना इसकी प्रेरक शक्ति होती है । मैथुन के विविध रूप हैं, सभी रूपों से दूर रहना, उनकी कामना तक न करना “मैथुन विरमण" है । देव-संबंधी, मनुष्य-सबंधी सभी प्रकार के मैथुन का परित्याग-मन, वचन और काया से न स्वयं मैथुन करना न दूसरों से करवाना और न मैथुन सेवन करने वाले का.समर्थन ही करना। इसी को अखण्ड ब्रह्मचर्य या पूर्ण ब्रह्मचर्य भी कहते हैं । चित को ब्रह्म अर्थात् आत्मा में या परमात्मा में लीन करना अर्थात् शारीरिक उर्जा को बहिर्मुखता से रोकते हुए अन्तर्मुखी बनाकर प्रात्मस्थ होना ही ब्रह्मचर्य है और ब्रह्मचर्य की पूर्णसाधना “मैथुन-विरमण-महाव्रत" है । काम-वासनाओं के संकल्प-विकल्प से रहित शान्त प्रवस्था को ब्रह्मचर्य-समाधि कहते हैं । उस समाधि की रक्षा के दस साधन बतलाए गए है। जैसे खेती की रक्षा बाड़ से होती है और कृषक हर पहलू से खेती की रक्षा करता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य की रक्षा गुप्तियों से होती है । गुप्ति का अर्थ ही बाड़ है। जिन-जिन मार्गों से अोज का प्रवाह शरीर से बाहर निकल सकता है, उन सभी मार्गों का अवरोध करना ही गुप्ति है । गुप्ति के बिना ब्रह्मचर्य की रक्षा असम्भव है । पहली गुप्ति-जहां विपरीत लिंगी व्यक्ति हो, ११२] [षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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