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________________ सव्व साहूण-का संस्कृत में तीसरा रूप "श्रव्य-साधुभ्यः" भी बनता है। सुनने योग्य प्रवचन को श्रव्य कहते हैं। वीतराग-वाणी, वीतराग भगवान की प्राज्ञा या गुरुदेवों की आज्ञा, ये सब सुनने योग्य है । इनके अतिरिक्त अन्य किसी प्रवचन को सुनने की उत्सुकता साधु के मन में न होनी चाहिये । जो साधु विनय, श्रु त, तप और आचार से संबधित प्रवचन सुनता है तथा अध्ययन करता है, वह "श्रव्य साधु'' कहलाता है। वह कभी भी विकथाओं के बीच मे पड़कर अपने बहुमूल्य जीवन को नष्ट नहीं करता। जिस से विचार और प्राचार की पुष्टि न हो सके, केवल मिथ्यात्व की वृद्धि हो, कषायों का संवर्धन हो और सांसारिक बातों के झझटों का विस्तार हो, साधुत्व-पथ का पथिक मुनि ऐसी बातों में कभी नही पडतो, तभी वह अपनी साधना में सफल हो पाता है, अत: "नमस्कार हो लोक मे श्रव्य-साधुओं को" यह अर्थ भी सुसगत ही प्रतीत होता है। . "सव्व साहूणं" का चौथा संस्कृत रूप बनता है "सव्य साधुभ्यः" । सव्य का अर्थ है-दायां, लक्षणावृत्ति से इसका भाव निकलता है अनुकूल, जो साधु अरिहंत भगवान के या प्राचार्य के अनुकूल बर्तने वाले हैं, या सब तरह आज्ञा में विचरण करनेवाले हैं, वे मुनिवर “सव्य साधु" कहलाते हैं । अरिहतों का बताया हुआ मार्ग सुमार्ग है । शेष सभी मार्ग कुमार्ग हैं । अन्हितों की प्राज्ञा के अनुकूल चलने वाले सभी मुनिवरो को "सव्य साधु" कहते हैं। मनुष्य-लोक में १०६] [षष्ठ प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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