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________________ है, उन्हें चरणसत्तरि कहा जाता है। पांच महाव्रत, दविध श्रमण-धर्म, सत्रह विध संयम, दस प्रकार का वैयावृत्य, नव ब्रह्मचर्य गुप्तियां, रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप और कपायनिग्रह, इन साधनों को चरणसत्तरि कहते हैं। करणसत्तरि जिन सत्तर बोलों का आचरण प्रयोजन होने पर करना और प्रयोजन न रहने पर न करना, जैसे कि कल्पनीय आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या, इन चारों को प्रयोजन होने पर ग्रहण करना पिण्ड-विशुद्धि है। पांच समितियां, बारह भावनाएं, बारह पडिमा, पांच इन्द्रिय-निग्रह, पच्चीस प्रतिलेखनाएं, तीन गुप्तियां तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के भेद से चार प्रकार का अभिग्रह ये सब मिलकर करणसत्तरि के सत्तर भेद होते हैं। __ ग्यारह अङ्गों का और चौदह पूर्वो का अध्ययन कराने वाले बहुत ही उपाध्याय कहलाते हैं । ११+१४ दोनों संख्याओं को मिलाकर पच्चीस हो जाते हैं । पच्चीस गुण उपाध्याय के हैं। किसी भी उपाध्याय की आशातना एवं मान-हानि न करना, हृदय में श्रद्धा-प्रीति रखना, वाणी से उनकी स्तुतिप्रशंसा करना, उनकी यश-कीर्ति का गान करना, काय से उनका मान-सम्मान, वन्दना, नमस्कार आदि करना शिष्य का परम कर्तव्य है। ९८] [पंचम प्रकाश
SR No.010732
Book TitleNamaskar Mantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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