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________________ दर्शन-प्रतिमा-वर्णन संकाइदोसरहिनो हिस्संकाइगुणजुयं परमं । कम्मणिज्जरणहेऊ तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ॥५१॥ जो शंकादि दोषोंसे रहित है, निःशंकादि परम गुणोंसे युक्त है और कर्म-निर्जराका कारण है, वह निर्मल सम्यग्दर्शन है ॥५१॥ * अङ्गोंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके नाम रायगिहे णिस्संको चोरो णामेण अंजणो भणिओ। चंपाए णिक्कंखा वणिगसुदा गंतमइणामा ॥५२॥ णिविदिगिच्छो राओ उद्दायणु णाम रुद्दवरणयरे। रेवइ महुरा .णयरे अमूढदिट्ठी मुणेयव्वा ॥५३॥ ठिदियरणगुणपउत्तो मागहणयरम्हि वारिसेणो दु। हथणापुरम्हि जयरे वच्छल्लं विण्हुणा रइयं ॥५४॥ उवगृहणगुणजुत्तो जिणयत्तो तामलित्तणयरीए। वज्जकुमारेण कया पहावणा चेव महुराए+ ॥५५॥ राजगृह नगरमें अंजन नामक चोर निःशंकित अंगमे प्रसिद्ध कहा गया है। चम्पानगरीमें अनन्तमती नामकी वणिकपुत्री निःकांक्षित अंगमें प्रसिद्ध हुई। रु वर नगरमें उद्दायन नामका राजा निर्विचिकित्सा अंगमें प्रसिद्ध हुआ। मथुरानगरमें रेवती रानी अमूढदृष्टि अंगमें प्रसिद्ध जानना चाहिये। मागधनगर (राजगृह) में वारिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुणको प्राप्त हुआ। हस्तिनापुर नामके नगरमें विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य अंग प्रकट किया है । ताम्रलिप्तनगरीमें जिनदत्त सेठ उपगूहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुआ है और मयुरा नगरीमें वज्रकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया है ॥५२-५५॥ ____ एरिसगुणअट्ठजुयं सम्मत्तं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मविट्ठी सदहमाणो पयत्थे य ॥५६॥ जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्वको धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है ॥५६॥ पंचुंबरसहियाई सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावनो भणिश्रो ॥१७॥ __ सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बरफल सहित सातों ही व्यसनोंका त्याग करता है, वह दर्शनश्रावक कहा गया है ।।५७।। उंबर-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरुपसूणाई। णिच्चं तससंसिद्धाई ताई परिवज्जियव्वाई ॥५॥ ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, इन पांचों उदुम्बर फल, तथा संधानक (अचार) और वृक्षोंके फूल ये सब नित्य त्रसजीवोंसे संसिक्त अर्थात् भरे हुए रहते हैं इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए ॥५॥ * प्रतौ पाठोऽयमधिक:-'तो गाथाषटकं भावसंग्रहग्रन्थात् । +भाव सं० गा २८०-२५३ । १६. पंपरीय । २ प. संहिद्धाइं।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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