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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार मूलगुणोंके ऊपर दिखाये गये भेदोंको देखनेपर यह बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इनके विषयमें मूलगुण माननेवाली परम्परामे भी भिन्न-भिन्न प्राचार्योंके विभिन्न मत रहे हैं। सूत्रकार उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें यद्यपि मूलगुण ऐसा नाम नहीं दिया है और न उनकी कोई संख्या ही बताई है और न उनके टीकाकारोंने ही । पर सातवें अध्यायके सूत्रोंका पूर्वापर क्रम सूक्ष्मेक्षिकासे देखनेपर एक बात हृदयपर अवश्य अंकित होती है और वह यह कि सातवें अध्यायके प्रारम्भमे उन्होने सर्वप्रथम पाँच पापोंके त्यागको व्रत कहा' । पुनः उनका त्याग देश और सर्वके भेद से दो प्रकारका बतलाया। पुनः व्रतोकी भावनाअोका विस्तृत वर्णन किया। अन्तम पांचो पापोंका स्वरूप कहकर व्रतीका लक्षण कहा और व्रतीके अगारी और अनगारी ऐसे दो भेद कहे। पुनः अगारीको अणुव्रतधारी बतलाया और उसके पश्चात् ही उसके सप्त व्रत (शील) समन्वित होनेको सूचित किया। इन अन्तिम दो सूत्रोपर गंभीर दृष्टिपात करते ही यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि अगारी पांच अणुव्रत और सात शीलोंका धारी होता है, तो दो सूत्र पृथक-पृथक् क्यों बनाये ? दोनोका एक ही सूत्र कह देते। ऐसा करनेपर 'सम्पन्न' और 'च' शब्दका भी प्रयोग न करना पड़ता और सूत्रलाघव भी होता। पर सूत्रकारने ऐसा न करके दो सूत्र ही पृथक पृथक् बनाये, जिससे प्रतीत होता है कि ऐसा करनेमे उनका अवश्य कोई आशय रहा है। गंभीर चिंतन करनेपर ऐसा माननेको जी चाहता है कि कहीं सूत्रकारको पाँच अणुव्रत मूलगुण रूपसे और सात शील उत्तर गुण रूपसे तो विवक्षित नहीं हैं ? एक विचारणीय प्रश्न यहाँ एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब समन्तभद्र और जिनसेन जैसे महान् श्राचार्य पाँच अणुव्रतोको मूलगुणोमें परिगणित कर रहे हो, तब सोमदेव या उनके पूर्ववर्ती किसी अन्य प्राचार्यने उनके स्थानपर पंचक्षीरी फलोंके परित्यागको मूलगुण कैसे माना ? उदुम्बर फलोंमे अगणित त्रसजीव स्पष्ट दिखाई देते है और उनके खानेमे त्रसहिंसाका या मांस खानेका पाप लगता है। त्रसहिंसाके परिहारसे उसका अहिसाणुव्रतमे अन्तर्भाव किया जा सकता था और मांस खानेके दोषसे उसे मांसभक्षणमें परिगणित किया जा सकता था ? ऐसी दशामे पंच उदुम्बरोके परित्यागके पाँच मूलगुण न मानकर एक ही मूलगुण मानना अधिक तर्कयुक्त था। विद्वानोंके लिए यह प्रश्न अद्यावधि विचारणीय बना हुआ है। संभव है किसी समय क्षीरी फलोंके भक्षणका सर्वसाधारणमें अत्यधिक प्रचार हो गया हो, और उसे रोकनेके लिए तात्कालिक प्राचार्योंको उसके निषेधका उपदेश देना आवश्यक रहा हो और इसलिए उन्होने पंचक्षीरी फलोके परिहारको मूलगुणोंमें स्थान दिया हो ! १ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ २ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ ३ निःशल्यो व्रती ॥१८॥ १ अगार्यनगारश्च ॥१६॥ ५ अणवतोऽगारी ॥२०॥ ६ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥२१॥ -तत्वा० अ०७ ७ परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥१३६॥-पुरुषार्थसिक
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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