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________________ अष्ट मूलगुणों के विविध प्रकार बतलाते हैं, पर वसुनन्दिके शब्दोसे ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता है। श्वे० साहित्यसे अवश्य उक्त चर्याकी पुष्टि होती है, जो कि साधुके लिए बतलाई गई है। और इसीलिए ऐसा माननेको जी चाहता है कि कहीं श्वेताम्बरीय साधुअोके संग्रह करनेकी दृष्टि से उत्कृष्ट श्रावककी वैसी चर्चा न कही गई हो ? १०-अष्ट मूलगुणों के विविध प्रकार यहाँ प्रकरणवश अष्टमूलगुणोंका कुछ अधिक स्पष्टीकरण अप्रासंगिक न होगा। श्रावक्रधर्मके श्राधारभूत मुख्य गुणको मूलगुण कहते हैं। मूलगुणों के विषयमे आचार्योंके अनेक मत रहे हैं जिनकी तालिका इस प्रकार हैं:प्राचार्य नाम-- मूलगुणोंके नाम (१) आचार्य समन्तभद्रः स्थल हिसादि पाँच पापोंका तथा मद्य, मांस, मधुका त्याग। या अनेक श्रमणोत्तम स्थूल । (२) प्राचार्य जिनसेनः-स्थूल हिंसादि पाँच पापोंका तथा द्यूत, मांस और मद्यका त्याग' । (३) प्राचार्य सोमदेव, आचार्य देवसेन–पाँच उदुम्बर फलोका तथा मद्य, मांस और मधुका त्याग । (४) अज्ञात नाम (पं० श्राशाधरजी द्वारा उद्धृत) - मद्यत्याग, मासत्याग, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पंच उदुम्बरफल त्याग, देवदर्शन या पंचपरमेष्ठीका स्मरण, जीवदया और छने जलका पान । इन चारों मतोके अतिरिक्त एक मत और भी उल्लेखनीय है और वह मत है श्राचार्य अमितगतिका । उन्होंने मूलगुण यह नाम और उनकी संख्या इन दोनो बातोंका उल्लेख किये बिना ही अपने उपासकाध्ययनमे उनका प्रतिपादन इस प्रकारसे किया है: मद्यमांसमधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं विधा। कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥ -अमित० श्रा० अ० ५ श्लो०१ अर्थात्-व्रत ग्रहण करनेकी इच्छासे विद्वान् लोग मन, वचन, कायसे मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन और क्षीरी वृक्षों के फलोंको सेवनका त्याग करते हैं, क्योंकि इनके त्याग करने पर ग्रहीत व्रत पुष्ट होता है। इस श्लोकमें न 'मूलगुण' शब्द है और न संख्यावाची आठ शब्द । फिर भी यदि क्षीरी फलोंके त्यागको एक गिनें तो मूलगुणोकी संख्या पाँच ही रह जाती है और यदि क्षीरी फलोंकी संख्या पाँच गिने, तो नौ मूलगुण हो जाते हैं, जो कि अष्टमूल गुणोंकी निश्चित संख्याका अतिक्रमण कर जाते हैं। अतएव अमितगतिका मत एक विशिष्ट कोटिमे परिगणनीय है। १-मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥-रत्नक० २--हिंसासत्याऽस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ॥ -आदिपुराण ३-मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपंचकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ यशस्तिलकचम्पू ४--मद्यपलमधुनिशाशनपंचफलीविरतिपंचकाप्सनुती। जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥४८॥ -सागारधर्मामृत अ०२
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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