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________________ १२८ वसुनन्दि-श्रावकाचार ___ . मालती, कदम्ब, कर्णकार (कनर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलक, मन्दार, नागचम्पक, पद्म (लाल कमल), उत्पल (नीलकमल), सिदुवार (वृक्षविशेष या निर्गुण्डी), कर्णवीर (कर्नेर) मल्लिका, कचनार, मचकुन्द, किंकरात (अशोक वृक्ष), देवोंके नन्दनवनमे उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम, और तगर (आदि उत्तम वृक्षोंसे उत्पन्न) पुष्पोंसे, तथा सुवर्ण, चांदीसे निर्मित फूलोंसे और नाना प्रकारके मुक्ताफलोकी मालाओंके द्वारा, सौ जातिके इन्द्रोंसे पूजित जिनेन्द्रके पद-पकज-युगलको पूजे ॥४३१-४३३॥ दहि-दुख-सप्पिमिस्सेहिं कलमभत्तेहिं बहुप्पयारेहिं । तेवहि-विजणेहिं य बहुविहपक्कएणभेएहिं ॥४३॥ रुप्पय-सुवरण-कंसाइथालिणिहिएहिं विविहभक्खेहिं । पुज्जं वित्थारिज्जो भत्तीए जिणिंदपयपुरो ॥४३५॥ चांदी, सोना और कांसे आदिकी थालियोंमें रखे हुए दही, दूध और घीसे मिले हुए नाना प्रकारके चांवलोंके भातसे, तिरेसठ प्रकारके व्यंजनोंसे, तथा नाना प्रकारकी जातिवाले पकवानोंसे और विविध भक्ष्य पदार्थोसे भक्तिके साथ जिनेन्द्र-चरणोंके सामने पूजाको विस्तारे अर्थात् नैवेद्यसे पूजन करे ॥४३४-४३५॥ दीवेहि णियपहोहामियक'तेएहि धूमरहिएहिं । मंदं चलमंदाणिलवसेण गच्चंत अञ्चीहिं ॥४३६।। घणपडलकम्मणिवहब्व दूर मवसारियंधयारेहिं । जिणचरणकमलपुरो कुणिज्ज रयणं सुभत्तीए ॥३७॥ अपने प्रभासमूहसे अमित (अगणित) सूर्योके समान तेजवाले, अथवा अपने प्रभापुञ्जसे सूर्यके तेजको भी तिरस्कृत या निराकृत करनेवाले, धूम-रहित, तथा धीरे-धीरे चलती हई मन्द वायुके वशसे नाचती हुई शिखाओंवाले, और मेघ-पटलरूप कर्म-समूहके समान दूर भगाया है अंधकारको जिन्होंने, ऐसे दीपकोंसे परमभक्तिके साथ जिन-चरण-कमलोंके आगे पूजनकी रचना करे, अर्थात् दीपसे पूजन करे ॥४३६-४३७।। कालायरु-णह-चंदह-कप्पूर-सिल्हारसाइदब्वेहिं'। णिप्पणधूमवत्तीहिं परिमलायत्तियालीहिं ॥४३८।। उग्गसिहादेसियसग्ग-मोक्खमग्गेहि बहलधूमेहिं । धूविज्ज जिणिंदपयारविंदजुयलं सुरिंदणुयं ॥३९॥ कालागुरु, अम्बर, चन्द्रक, कपूर, शिलारस (शिलाजीत) आदि सुगंधित द्रव्योंसे बनी हुई, जिसकी सुगन्धसे लुब्ध होकर भूमर आ रहे हैं, तथा जिसकी ऊँची शिखा मानों स्वर्ग और मोक्षका मार्ग ही दिखा रही है, और जिसमेंसे बहुतसा धुआँ निकल रहा है, ऐसी धूपकी बत्तियोंसे देवेन्द्रोंसे पूजित श्री जिनेन्द्रके पादारविद-युगलको धूपित करे, अर्थात् उक्त प्रकारकी धूपसे पूजन करे ॥४३८-४३९॥ जंबीर-मोच-दाडिम-कविथ-पणस-णालिएरेहिं । हिंताल-ताल-खज्जूर-णिबु-नारंग-चारेहिं ॥१०॥ पूईफल-तिंदु-आमलय-जंबु-विल्लाइसुरहिमिटेहिं । जिणपयपुरो रमणं फलेहि कुज्जा सुपक्केहिं ॥४४॥ निराकृत इत्यर्थः। २ प. ब. ध, मुवसा०।३२. ब. तुरुक्क । १ . ब. दिव्वेहिं । ५प. वत्ताहिं। ६ इ. पंति०, श. यदि, ब, यड्डि०। ७ब. कपिह। ८ श.वारेहि ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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