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________________ प्रतिष्ठा-विधान एवं गहवण काऊण सत्थमग्गेण संघमज्झम्मि । तो वक्खमाणविहिणा जिणपयपूया य कायव्वा ॥४२॥ इस प्रकार शास्त्रके अनुसार सघके मध्यमे जिनाभिषेक करके आगे कही जानेवाली विधिसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोकी पूजा करना चाहिए ॥४२४॥ गहिऊण सिसिरकर-किरण-णियर-धवलयर-रययभिंगारं । मोतिय-पवाल-मरगय-सुवगण-मणि खचिय'वरकंठं ॥४२५॥ सयवत्त-कुसुम कुवलय-रजपिंजर-सुरहि-विमल-जलभरियं । जिणचरण-कमलपुरो खिविजि ओ तिरिण धाराश्रो ॥४२६॥ मोती, प्रवाल, मरकत, सुवर्ण और मणियोंसे जटित श्रेष्ठ कण्ठवाले, शतपत्र (रक्त कमल) कुसुम, और कुवलय (नील कमल) के परागसे पिजरित एवं सुरभित विमल जलसे भरे हुए शिशिरकर (चन्द्रमा) की किरणोंके समूहसे भी अति धवल रजत (चांदी) के भृङ्गार (झारी) को लेकर जिनभगवान्के चरण-कमलोंके सामने तीन धाराएँ छोड़ना चाहिए। ॥ ४२५-४२६ ॥ कप्पूर-कुंकुमायरु-तुरुक्कमीसेण चंदणरसेण ।। वरवहलपरिमलामोयवासियासासमूहेण ।।४२७॥ वासाणुमग्गसंपत्तमुइयमत्तालिरावमुहलेण । सुरमउडधिट्ठचलणं' भत्तीए समलहिज जिणं ॥४२॥ कपूर, कुंकूम, अगर, तगरसे मिश्रित, सर्वश्रेष्ठ विपूल परिमल (सगन्ध ) के आमोदसे आशासमूह अर्थात् दशों दिशाओंको आवासित करनेवाले और सुगन्धिके मार्गके अनुकरणसे आये हुए प्रमुदित एवं मत्त भूमरोंके शब्दोंसे मुखरित, चंदनरसके द्वारा, (निरन्तर नमस्कार किये जानेके कारण) सुरोंके मुकुटोंसे जिनके चरण घिस गये हैं, ऐसे श्रीजिनेन्द्रको भक्तिसे विलेपन करे ॥४२७-४२८॥ ससिकंतखंडविमलेहिं विमलजलसित्त अईसुयंधेहिं । जिणपडिमपट्टयज्जियविसुद्धपुण्णंकुरेहिं व ॥४२६॥ वर कलम-सालितंडुलचएहिं सुषंडिय' दोहसयलेहिं । मणुय-सुरासुरमहियं पुजिज जिणिंदपयजुयलं ॥४३०॥ __ चन्द्रकान्तमणिके खंड समान निर्मल, तथा विमल (स्वच्छ) जलसे धोये हुए और अतिसुगंधित, मानों जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठासे उपार्जन किये गये हों, ऐसे अखड और लंबे उत्तम कलमी और शालिधान्यसे उत्पन्न तन्दुलोंके समूहसे, मनुष्य सुर और असुरोंके द्वारा पूजित श्रीजिनेन्द्रके चरण-युगलको पूजे ॥४२९-४३०॥ मालइ-कर्यब-कणयारि-चंपयासोय-बउल-तिलएहिं । मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहिं ॥४३॥ कणवीर-मल्लियाहिं कचणार-मचकुंद-किंकराएहिं । सुरवणज जूहिया-पारिजातय -जासवण-टगरेहिं ॥४३२॥ सोवण्ण-रुप्पि-मेहिय-मुत्तादामेहिं बहुवियप्पेहिं । जिणपय-पंकयजुयलं पुजिज सुरिंदसयमहियं ॥४३३॥ अट कुर ही १ ब. खविय । २ ध. प. कमल । ३ म. चरणं। ४ म. मिउ । ५ ब. सुछडिय। ६ध, प. मल्लिया। ७ म. ब. ध. प. सुरपुण्ण । ८ध,प, पारियाय । ९ ब, सेहिय । (निवृत्त इत्यर्थ)
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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