SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 777
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास ववसाअरइप्पओसो रोगइन्द दिसंखला पडिवन्धो । कह कह वि दासरहिणो जयकेसरिपञ्जरो गe areas || (स० कं० ४, २९; से० चं० १४ ) राम के उद्यम रूपी सूर्य के लिये रात्रि के समान, उनके रोप रूपी महागज के लिये दृढ़ श्रृंखलाबंध के समान, तथा उनके विजय रूपी सिंह के लिये पिंजड़े के समान वर्षाकाल किसी प्रकार व्यतीत हुआ । ( रूपक अलङ्कार का उदाहरण ) ७७० ववसिणिवेइअत्थो सो मारुइलद्धपञ्चआगअहरिसं । सुग्गीवेण उरत्थलवणमालामलिअमहुअरं उवऊढो ॥ (स० कं० ४, १७१ ) जिसने संकल्प के अर्थ का निवेदन किया है ऐसे (विभीषण) का हनुमान द्वारा विश्वास प्राप्त करने पर हर्षित हुए, तथा वक्षःस्थल में पहनी हुई वनमाला के भ्रमरों का मर्दन कर सुग्रीव ने आलिंगन किया । ( परिकर अलङ्कार का उदाहरण ) वग्गणा करो मे दो त्ति पुगो पुणो चिअ कहेइ । हालिअसुआ मलिअच्छुसदोहली पामरजुआणे ॥ (स०कं० ५,३१६ ) 'बुझी हुई आग से मेरा हाथ जल गया' - इस प्रकार पामर युवा द्वारा कृषककन्या को बार-बार संबोधित किये जाने पर उसका दोहद्र दलित हो गया । वाणिअय ! हत्थिदंता कुत्तो अम्हाण वग्धकित्तीओ । जाव लुलियालयमुही घरंमि परिसक्कए सुण्हा ॥ ܕܪ ( ध्वन्या० उ० ३ पृ० २४२; काव्या० पृ० ६३, ३७; काव्य प्र० १०, ५२८ ) हे वणिक ! हमारे घर में हाथीदांत और व्याघ्रचर्म कहाँ से चंचल केशों से शोभायमान मुख वाली पुत्रवधू घर में रहती है ! ( उत्तर और नियम अलङ्कार का उदाहरण ) आया जब कि क्रीड़ा में रत अनवरत वाणीरकुडगुड्डी उणिकोलाहलं सुणंतीए । घरकम्मवावडाए वहुए सीयंति अंगाई ॥ काव्या०, पृ० १५२, १७१५; काव्यप्रकाश ५, १३२, साहित्य०, पृ० २८७; ध्वन्या० उ० २ पृ० २२१ ) बेंत के कुंज से उड़ते हुए पक्षियों का कोलाहल सुनती हुई, घर के काम-काज में लगी बधू के अंग शिथिल हो रहे हैं। ( असुंदर व्यंग्य का उदाहरण ) वारिज्जन्तो वि पुणो सन्दात्रकदत्थिएण हिअएण । थणहरव अस्सएण विसुद्धजाई ण चलइ से हारो ॥ ( काव्य० प्र०४, ८६ ) संतप्त हृदय द्वारा रोका जाता हुआ भी विशुद्ध जाति के मोतियों से गूंथा हुआ 'हार अपने परम मित्र कुचद्वय से अलग नहीं होता है ( पुरुषायित रति के प्रसंग की यह उक्ति है ) |
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy