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________________ अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७५७ जब से उस कमलनयनी सुन्दरी सुवदना को देखा है तब से ज्योत्स्ना उष्ण मालूम देने लगी है, चन्दन का रस विष के समान लगने लगा है, हार क्षारयुक्त मालूम देता है, मलय का पवन शरीर को संतप्त करने लगा है, मृणाल बाणों के समान मालूम देता है और जल से आई शरीर तपने लगा है। (पदानुप्रास का उदाहरण) पलिच्चले लम्बदशाकलाअं पांवालअं शुत्तशदेण छत्तं। मंशं च खाईं तुह ओटिकाहिं चकुचकुचुक्कुचुकुश्चकुं ति॥ __ (स० के०५, ४०६, मृच्छकटिक ८, २१) अरे ! सैकड़ों धागों से बनी लंबी किनारी वाली चादर को स्वीकार कर चुकचुक करती हुई अपने ओठों से यदि मांस खाने की इच्छा है तो ... ....... (मागधी की उक्ति) . पल्लविअं विअ करपल्लवेहिं पप्फुल्लिअं विअ णअणेहिं । फलिअं वि अ पीणपओहरेहिं अजाए लावण्णं ॥(स०के० ४, ९०) आर्या का लावण्य हस्तरूपी पल्लवों से पल्लवित, नयनों से प्रफुल्लित और पीन ययोधरों से फलित जान पड़ता है। (समाधि अलङ्कार का उदाहरण) पवणुवेल्लिअसाहुलि ठएसु ठिअदण्डमण्डले ऊरू। चडुआरअंपईमा हु पुत्ति ! जणहासणं कुणसु ॥ (स०कं०५,२१९) वायु के द्वारा चंचल वस्त्र के आँचल में दंडमंडल की भाँति दिखाई देने वाले जो तुम्हारे ( कम्पमान ) उरु हैं उन्हें तू निश्चल कर। हे पुत्रि! नहीं तो तुम्हारा चाटुकारी पति उपहास का भाजन होगा । (मान के पश्चात् अनुराग का उदाहरण) पविसन्ती घरवारं विवलिअवअणा विलोइऊण पहम् । खधे घेत्तूण धडं हाहा गट्ठो त्ति रुअसि सहि ! किं ति ॥ (काव्य०प्र०४,९०) हे सखि ! कंधे पर घड़ा रक्खे घर के द्वार में प्रवेश करती हुई रास्ते की ओर देख कर तूने उधर ही आँखें जमा लीं, और जब घड़ा फूट गया तो फिर हा-हा करके रोती है ? (हेतु अलङ्कार का उदाहरण) पहवन्ति चि पुरिसा महिलाणं किं खु सुहअ ! विहिओसि । अणुराणोल्लिआए . को दोसो . आहिजाईए ॥ (स.कं०५, १०९) पुरुष ही सामर्थ्यवान् होते हैं, हे सुभग ! तुम तो जानते हो, महिलाओं के संबंध में क्या कहा जाये ? अनुरागसे प्रेरित कुलीन महिलाओं का इसमें क्या दोष ? पाअपडणाणं मुद्धे ! रहसवलामोडिचुंबिअम्वाणम् । दसणमेत्तपसिजिरि चुक्का बहुआण सोक्खाणं॥ (स० के०५, २६०, गा० स०५, ६५) अपने प्रियतम के दर्शन मात्र से प्रसन्न हुई हे मुग्धे ! तू ( मनुहार के कारण) पांव पड़ने तथा जबर्दस्ती चुम्बन लेने आदि अनेक सुखों से वंचित ही रह गई।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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