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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास पत्तनिअंबफंसा हाणुत्तिष्णाए सामलंगीए । विरा अंति जलबिन्दुहिं बंधस्स व भएन || ( काव्या० पृ० २१२, २४३; गा० स०६, ५५ ) स्नान करके आई हुई किसी श्यामलाङ्गी के नितंबों को स्पर्श करने वाले केशों में से जो जल की बूंदें चू रही हैं, उनसे लगता है कि केश मानों फिर से बाँधे जाने के भय से रुदन कर रहे हैं । ( उत्प्रेक्षा अलङ्कार का उदाहरण ) ७५६ पत्ता असी राहअधाउसिलाजलणिसण्णराइअजलअं । सज्यं ओजुर पहसिददरिमुहणिम्महिअवउलमइरामोअं ॥ (स० कं० २, १९१; सेतुबंध १, ५६ ) जिसके जल-बिन्दुओं से आहत धातुशिलातल पर आसीन मेघों से शोभायमान तथा जिसके निर्झर रूप हंसती हुई कन्दराओं से बकुल पुष्प की गंध के रूप में मदिरा का आमोद फैल रहा है, ऐसे सह्य पर्वत पर (वीर, वानर ) पहुँच गये । ( ओजस्विनी नायिका का उदाहरण ) पप्पुरिअउट्ठदलअं तक्खणविगलिअरुहि रमहुविच्छ्डम् | उक्खडिअ कण्ठणालं पडिअं फुडदसणकेसरं मुहकमलम् ॥ (स० कं० ४, ३७ ) हिलते हुए ओष्ठरूपी दल, तत्क्षण गिरते हुए रुधिर रूपी मधुप्रवाह खंडित कंठ रूपी कमलनाल, और स्फुट दाँत रूपी केसर से युक्त मुखरूपी कमल नीचे ढुक गया । ( रूपक का उदाहरण ) परिवहंति णिसंस (म) इ मण्डलिअकुसुमाउहं अगंगम् । विरहम्मि मण्णइ हरीण हे (?) अणत्थपडिउट्ठिअं व मिअंकम् ॥ (स० कं०५, १४५ ) अपने कुसुमायुध को बटोरकर कामदेव मानो निश्शंक होकर लौट रहा है; fare काल में मनोहर लगने वाले नखक्षत, व्यर्थ ही उठे हुए चन्द्रमा की भाँति जान पड़ रहे हैं | परिवडूढइ विनाणं संभाविज्जइ जसो विढप्पन्ति गुणा । सुग्वइ सुपुरिसचरिअं कित्तं जेण न हरन्ति कहालावा ॥ ( काव्या० पृ० ४५६, ६१३; सेतुबंध १, १० ) यश संभावित होता है, गुणों का अर्जन होता इस प्रकार काव्यकथा की वह कौनसी बात है उससे विज्ञान की वृद्धि होती है, है, सुपुरुषों का चरित सुना जाता है, जो मन को आकृष्ट न करती हो । परं जोन्हा उन्हा गरलसरिसो चन्दणरसो । खदक्खारो हारो मलअपवणा देहतवणा ॥ णाली वाणाली जलदि अ जलद्दा तणुलदा | वरिट्ठा जं दिट्ठा कमलवअणा सा सुणअणा ॥ (स० कं० २, २२३, कर्पूरमं० २,११ )
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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