SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 720
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१४ प्राकृत साहित्य का इतिहास आसाइयं अणाएण जेत्तियं तेत्ति चिअ विहीणं । ओरमसु वसह ! इण्हिं रक्खिजइ गहवईच्छित्तं । (काव्या० पृ०५४, १६) हे बैल! तूने बिना जाने खेत के कितने ही धान खा लिए, तू अव ठहर जा, क्योंकि गृहपति अब अपने खेत की रखवाली करने आ गया है। (भाविक अलंकार का उदाहरण) इमिणा सरएण ससी ससिणा वि णिसा णिसाइ कुमुअवणम् । कुमुअवणेण अ पुलिणं पुलिणेण अ सोहए हंसउलम् ॥ (स० के०४, २०५) इस शरद् से चन्द्रमा, चन्द्रमा से रात्रि, रात्रि से कुमुदवन, कुमुदवन से नदीतट और नदीतट से हंस शोभा को प्राप्त होते हैं । ( माला का उदाहरण ) ईसाकलुसस्स वि तुह मुहस्स नणु एस पुण्णिमायंदो। अज्ज सरिसत्तणं पाविऊण अंगे च्चिय न माइ ।। (काव्यानु० पृ० ७६, १४५, ध्वन्या० उ०२ पृ० २०८) (हे मनस्विनि !) देखो पूनो का यह चाँद ईर्ष्या से कलुषित तुम्हारे मुख की समानता पाकर फूला नहीं समाता। उअहिस्स जसेण जसं धीरं धीरेण गरुअआइ वि गरुअम् । रामो ठिएअ वि ठिई भणइ रवेण अ रवं समुप्फुदन्तो। (स० कं० २, २४०, सेतुबंध ४, ४३) (रामचन्द्र ) अपने यश से समुद्र के यश, अपने धैर्य से उसके धैर्य, अपनी गम्भीरता से उसकी गम्भीरता, अपनी मर्यादा से उसकी मर्यादा और अपनी ध्वनि से उसकी ध्वनि को आक्रान्त करते हुए कहने लगे। उअ णिञ्चलणिप्पन्दा भिसिणीपत्तम्मि रेहइ बलाआ। .. निम्मलमरगअभाअणपरिहिआ संखसुत्ति व्व ॥ (साहित्य० पृ० ६३; गा० स० १, ४, काव्यप्रकाश २, ८) (अरे प्रियतम!) देखो कमलिनियों के पत्तों पर निश्चल और स्थिर बगुलों की पंक्ति ऐसी शोभित हो रही है मानो किसी निर्मल नीलम के पात्र में शंख की सीपी रक्खी हो । (धर्मोक्ति, व्यंग्योक्ति और स्वभावोक्ति अलंकार का उदाहरण) उचिणसु पडियकुसुमं मा धुण सेहालियं हलियसुण्हे । एस अवसाणविरसो ससुरेण सुओ वलयसहो। (ध्वन्या० उ०२, पृ० २२३, काव्यानु० पृ० ५५,२०) हे हलवाहे की पतोहू ! भूमि पर स्वयं गिरे हुए पारिजात के पुष्पों को चुन ले, उसकी टहनियाँ मत हिला, कारण कि तेरे कंकणों के अप्रीतिकर शन्द को तेरे श्वसुर ने सुन लिया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy