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________________ अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची आणासआइ देंती तह सुरए हरिसविअसिअकवोला । गोसे व ओणअमुही अससोत्ति पिआ ण सङ्घहिमो ॥ (शृङ्गार ५३, १ ) हर्ष से विकसित कपोलवाली और सुरत के समय सैकड़ो आशायें देनेवाली ही प्रिया प्रभात काल में मुंह नीचा करके चलती है, यह विश्वास नहीं मोना । आणिअपुल उब्भेओ सवत्तिपणअपरिधूसरम्मि वि गुरुए । पिअसणे पवड्ढr मण्णुट्ठाणे वि रूपिणीअ पहरिसो ॥ (स० कं० ५,३३०) सपली के प्रणय से अत्यधिक धूसरित और रोप के स्थान ऐसे प्रियदर्शन होने पर पुलकित हुई रुक्मिणी का हर्ष बढ़ने लगा । ७१३ आम ! असइओ ओरम पइव्वए ण तुए मलिणिअं सीलम् । किं उण जणस्स जाअन्व चन्दिलं तं ण कामेमो ॥ ( ध्वन्या० उ० ३, पृ० ५१८; गा० स०५, १७ ) अच्छा मैं कुल्टा हूँ और तू है पतिव्रता ! तू मुझसे दूर रह । कहीं नेग शील तो दूषित नहीं हो गया ? एक साधारण वेश्या की भाँति उस नाई पर तो मेरा दिल नहीं चला गया ? आलाओ मा दिज्जउ लोभविरुद्धंति णाम काऊण । समुहापडिए को वेरिए वि दिहिं ण पाढेइ ॥ · (स० कं०५, १४६ ) लोकविरुद्ध समझकर इसके संबंध में चर्चा मत करो। सामने आये हुए शत्रु ऊपर भला कौन नजर नहीं डालता ? आलोअन्त दिसाओ ससन्त जम्भन्त गन्त मुज्झन्त पड़न्त हसन्त पहिअ किं ते रोअन्त । पउत्थेण ॥ (स० कं०५, २६६; गा० स०६, ४६ ) हे पथिक ! अभी से जब तेरी यह दशा है कि तू इधर-उधर देख रहा है, मंग साँस चलने लगी है, तू जम्हाई ले रहा है, कभी तू गाता है, कभी रोता है, बेहोश हो जाता है, कभी गिर पड़ता है और कभी हँसने लगता है, तो फिर प्रवास पर जाने से क्या लाभ ? अअअरं चि ण होइ दुक्खस्स दारुणं णिग्वहणम् । ore ! जिअन्तीअ मए दिहं सहिअं अ तुह इमं अवसाणम् ॥ (सं० क०५, २५५ ) दुख का दारुण निर्वाह अन्ततः भयंकर नहीं होता । हे नाथ ! जीवित मैंने तुम्हारे इस अन्त को देखा और सहन किया है । ( सीता की रामचन्द्र के प्रति उक्ति ) ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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