SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 665
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५८ प्राकृत साहित्य का इतिहास ध्वन्यालोक ध्वन्यालोक की मूलकारिका और उसकी विवृति के रचयिता आनन्दवर्धन काश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा (ईसवी सन् ८५५८८३) के सभापति थे। अभिनवगुप्त ने इस ग्रंथ पर टीका लिखी है। ध्वन्यालोक में ध्वनि को ही काव्य की आत्मा माना गया है। आनन्दवर्धन के समय से अलंकार ग्रन्थों में महाराष्ट्री प्राकृत के पद्य बहुलता से उद्धृत किये जाने लगे। ध्वन्यालोक' और अभिनवगुप्त की टीका में प्राकृत की लगभग ४६ गाथायें मिलती हैं। नीति की एक उक्ति देखिये होइ ण गुणाणुराओ खलाणं णवरं पसिद्धिसरणाणम् । किर पह्नवइ ससिमणी चन्दे ण पिआमुद्दे दिठे ।। (१.१३ टीका) -प्रसिद्धि को प्राप्त दुष्टजनों के प्रति गुणानुराग उत्पन्न नहीं होता। जैसे चन्द्रमणि चन्द्र को देखकर ही पसीजती है, प्रिया का मुख देखकर नहीं। एक दूसरी उक्ति देखियेचन्दमऊएहिं णिसा णलिनी कमलेहिं कुसुमगुच्छेहिं लआ। हंसेहिं सरहसोहा कव्वकहा सज्जणेहिं करइ गरुइ ॥ (२.५० टीका) -रात्रि चन्द्रमा की किरणों से, नलिनी कमलों से, लता पुष्प के गुच्छों से, शरद् हंसों से और काव्यकथा सजनों से शोभा को प्राप्त होती है। दशरूपक दशरूपक (अथवा दशरूप ) के कर्ता धनंजय (ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी) मालवा के परमारवंश के राजा मुंज के राजकवि थे। दशरूपक भरत के नाट्यशास्त्र के ऊपर आधारित १. पट्टाभिरामशास्त्री द्वारा सम्पादित, चौखंबा संस्कृत सीरिज़, बनारस से सन् १९४० में प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy