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________________ ६३४ प्राकृत साहित्य का इतिहास भाषाओं में कवित्त करने में और राजाओं का मनोरंजन करने में ये कुशल थे। नयचन्द्र ने अपने आपको श्रीहर्प और अमरचन्द्रकवि के समान प्रतिभाशाली बताया है। अपनी रंभामंजरी को भी उन्होंने कर्पूरमंजरी की अपेक्षा श्रेष्ठ कहते हुए उसमें कवि अमरचन्द्र का लालित्य और श्रीहर्प की वक्रिमा स्वीकार की है। लेकिन वस्तुतः वसंत के वर्णन आदि प्रसंगों पर नयचन्द्र ने कर्पूरमंजरी को आदर्श मानकर ही अपने सट्टक की रचना की है। नाटककार के रूप में लेखक बहुत अधिक सफल हुए नहीं जान पड़ते। रंभामंजरी में तीन जवनिकांतर हैं, इसमें संस्कृत का भी प्रयोग हुआ है। नयचन्द्र का समय १४ वीं शताब्दी का जरि पेखिला मस्तकावरी केशकलापु। तरी परिस्खलिला मयूरांचे पिच्छप्रतापु ॥ जरि नयनविषयु केला वेणीदंड। तरि साक्षाजालाभ्रमण(र)श्रेणीदंड ॥ जरि दृग्गोचरी आला विसाल भालु। तरि अर्द्धचन्द्रमंडलु भइला ऊर्णायु जालु । भ्रूजुगलु जाणु द्वैधीकृतकंदपंचापु । नयननिर्जितु जाला पंजनु निःप्रतापु ॥ मुखमंडलु जाणु शशांक देवताचे मंडलु । सर्वांगसुन्दरता मूर्तिमंतकामु॥ कल्पगुम जैसे सर्वलोकआशाविश्रामु । ( जवनिकांतर १) -जब मस्तक के ऊपर केशकलाप देखा तो वह मयूर के पंख की शोभा जान पड़ी। वेणीदंड भ्रमरों की पंक्ति की भाँति प्रतीत हुई। विशाल मस्तक अर्धचन्द्र के मंडल की भाँति जान पढ़ा। श्रूयुगल कामदेव के टूटे हुए धनुष की भाँति जान पड़ा। तुम्हारे नयनों ने खंजन पक्षियों को प्रतापहीन कर दिया। मुखमंडल चन्द्रदेवता के मंडल के समान जान पड़ा। सर्व अंग की सुन्दरता मूर्तिमान काम के समान प्रतीत हुई । कल्पद्रुम की भाँति सब लोगों की आशा का विश्राम जान पड़ी।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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