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________________ सिंमारमंजरी जम्मणो पहुदि बढिदा मए लालणेहि विविहेहि कण्णआ। संपदं तुह करे समप्पिआ से पिओ गुरुअणो सही तुमं ।। -जन्म से विविध लालन-पालन के द्वारा जिस कन्या को मैंने बड़ा किया, उसे अब मैं तुम्हारे हाथ सौंप रही हूँ, अब तुम इसके प्रिय, गुरुजन और सखी सभी कुछ हो। सिंगारमंजरी विश्वेश्वर की शृङ्गार-मंजरी' प्राकृत साहित्य का दूसरा सट्टक है। विश्वेश्वर लक्ष्मीधर के पुत्र और शिष्य थे तथा अलमोड़ा के निवासी थे। इनका समय ईसवी सन् की १८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। विश्वेश्वर ने अल्पवय में ही अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें नवमालिका नाम की नाटिका और शृङ्गारमंजरी नामक सट्टक मुख्य हैं। डाक्टर ए० एन० उपाध्ये को इस सट्टक की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं जिनके आधार पर उन्होंने अपनी चन्दलेहा की विद्वतापूर्ण भूमिका में इस अन्थ का कथानक प्रस्तुत किया है। राजशेखर की कर्पूरमंजरी और शृङ्गारमंजरी के वर्णनों आदि में बहुत-सी समानतायें पायी जाती हैं। दोनों ही ग्रन्थकारों ने भास की वासवदत्ता, कालिदास के मालविकाग्निमित्र तथा हर्ष की रत्नावलि और प्रियदर्शिका का अनुकरण किया है। शृङ्गारमंजरी में कवि की मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं, भापा-शैली उनकी प्रसादगुण से संपन्न है । रंभामंजरी रंभामंजरी के कर्ता प्रसन्नचन्द्र के शिष्य नयचन्द्र है जो पहल विष्णु के उपासक थे और बाद में जैन हो गये थे। पट् १. काध्यमाला सीरीज़, भाग में बम्बई से प्रकाशित । २. रंभामंजरी में साहित्यिक मराठी के प्रयोग मिलते हैं, इस वृष्टि से यह अन्य बहुत महत्व का है
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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