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________________ श्रीहर्ष के नाटक ६२३ आरण्यका ( प्रियदर्शिका ), वासवदत्ता, कांचनमाला, मनोरमा और विदूषक आदि प्राकृत में बातचीत करते हैं। आरिण्यका के कुछ गीत देखिये घणबंधणसंरुद्धं गअणं दट्ठूण माणसं एढुं । अहिलसइ राजहंसो दइअं घेऊण अप्पणो वसई ॥ - बादलों के बन्धन से संरुद्ध आकाश को देखकर राजहंस अपनी प्रिया को लेकर मानसरोवर में जाने की अभिलापा करता है । फिर - अहिणवराअक्खित्ता महुअरिआ वामएण कामेण । उत्तम पत्थन्ती ट्ठे पिअसणं दइअं || ( तृतीय अङ्क ) । - वक्र काम के द्वारा अभिनव राग में क्षिप्त मधुकरी अपने यता के प्रियदर्शन के लिये प्रार्थना करती हुई व्याकुल होती है । रत्नावली में वासवदत्ता और उसकी परिचारिकायें आदि प्राकृत में वार्तालाप करती हैं। कौशाम्बी के राजा वत्स का मित्र वसन्तक राजा को एक शुभ समाचार सुना रहा है ही ही भो ! अच्चरिअं अब रिअं । कोसंबी रज्जलाहेणावि ण सो पिस हिअअपरितोसो जादिसो मम आसादो अज्ज पिअवअणं सुणिअ हविस्सदित्ति तक्केमि । ता जाव गदुअ पिअ असस्स णिवेदइस्सं । ( परिक्रम्यावलोक्य च ) कथं एसो पिअवअस्सो जधा इमं ज्जेव्व पडिवालेदि । ता जाव णं उवसपामि । (इत्युपसृत्य ) जअदु जअदु पिअवअस्सो । भो वअस्स ! आ बड्ढसे तुमं समीहिदकज्जसिद्धीए । ( तृतीय अङ्क ) । अरे आश्चर्य ! आश्चर्य । मैं समझता हूँ, सुनकर जैसा परितोष मेरे प्रिय वयस्य को कौशाम्बी का राज्य पाकर भी नहीं हो सकता । प्रिय सखा के पास पहुँचकर इस समाचार को ( घूमकर और देखकर ) मेरा प्रिय सखा इसी मुझ से प्रिय वचन होगा वैसा उसे इसलिये मैं अपने निवेदन करूँगा । दिशा की ओर
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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