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________________ ६२२ प्राकृत साहित्य का इतिहास हउं पई पुछिछमि आक्खहि गअवरु ललिअपहार णासिअतरुवरु । दूरविणिजिअससहरकन्ती दिट्ठी पिअ पई संमुह जन्ती॥ -हे गजवर ! मैं तुझ से पूछ रहा हूँ, उत्तर दे । तू ने अपने सुन्दर प्रहार से वृक्षों का नाश कर दिया है। दूर से ही चन्द्रमा की कान्ति को जीतने के लिये मेरी प्रिया को क्या तू ने प्रिय के सन्मुख जाते देखा है ? दूसरा गीत देखिये मोरा परहुअ हंस रहंग अलि गअ पव्वअ सरिअ कुरंग । तुझह कारण रण्ण भमन्तै को ण हु पुच्छउ मई रोअन्ते । -मोर, कोयल, हंस, चक्रवाक, भ्रमर, गज, पर्वत, सरिन् , कुरंग इन सब में से तेरे कारण जंगल में भ्रमण एवं रुदन करते हुए मैंने किस-किस को नहीं पूछा ? श्रीहर्ष के नाटक श्रीहर्प ( ईसवी सन् ६००-६४८ ) ने प्रियदर्शिका', रत्नावली और नागानन्द में प्राकृत भाषाओं का प्रचुर प्रयोग किया है। नाटिकाओं में पुरुप-पात्रों की संख्या कम है तथा स्त्री-पात्र और विदूषक आदि प्राकृत में बातचीत करते हैं। पद्य में महाराष्ट्री के साथ शौरसेनी का भी प्रयोग हुआ है। प्रियदर्शिका में चेटी, १. एम० आर० काले द्वारा सम्पादित, गोपालनारायण एण्ड कं. बम्बई द्वारा १९२८ में प्रकाशित । २. के. एम. जोगलेकर द्वारा १९०७ में सम्पादित । ३. आर० आर० देशपाण्डे और बी० के. जोशी द्वारा सम्पादित, दादर बुकडिपो, बम्बई द्वारा प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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