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________________ नाटक में प्राकृतों के रूप ६१३ अधिकांश पात्र वही हैं जो नाटकों में प्राकृत भाषायें बोलते हैं । इससे यही प्रतीत होता है कि प्राकृत जन-साधारण की, तथा संस्कृत पण्डित, पुरोहित और राजाओं की भाषा मानी जाती थी । स्त्रियाँ प्रायः शौरसेनी में ही बातचीत करती हैं ( संस्कृत उनके मुँह से अच्छी नहीं लगती ) ।' अधम लोग भी शौरसेनी में बोलते थे, तथा अत्यन्त नीच पैशाची और मागधी में । तात्पर्य यह है कि नीच पात्र अपने-अपने देश की प्राकृत भाषाओं में बातचीत करते थे, और संस्कृत नाटकों को लोकप्रिय बनाने के लिये भिन्न-भिन्न पात्रों के मुख से उन्हीं की बोलियों में बातचीत कराना आवश्यक भी था । | प्राचीन काल में संस्कृत और प्राकृत में अनेक नाटक लिखे गये । सम्भव है सट्टों की भाँति कतिपय नाटक भी पूर्णतया प्राकृत में ही रहे हों जो संस्कृत से प्रभाव के कारण आज नष्ट हो गये, अथवा संस्कृत में रूपान्तरित होने के कारण उनका स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं रहा। आगे चलकर तो नाटकों के प्राकृत अंशों की संस्कृत छाया का महत्त्व इतना बढ़ गया कि नौवीं शताब्दी के नाटककार राजशेखर को अपनी बालरामायण के १. शूद्रक ने अपने मृच्छकटिक में स्त्रियों के मुख से बोली जानेवाली संस्कृत भाषा को हास्योत्पादक बताते हुए उसकी उपमा एक गाय से दी है जिसके नथुनों में नई रस्सी डाले जाने से वह सू सू का शब्द करती है ( इथिआ दाव सकअं पढन्ती दिण्णणवणस्सा वि अ गिट्टी अहि सुसुआदि - तीसरा अङ्क, तीसरे लोक के बाद । ) २. स्त्रीणां तु प्राकृतम् प्रायः शौरसेन्यधमेषु च । पिशाचात्यन्तनीचादौ पैशाचम् मागधं तथा ॥ (इसके अर्थ के लिये देखिये मनमोहनघोष, कर्पूरमञ्जरी की भूमिका, पृ० ४९-५० ) यद्देशं नीचपात्रं यत्तद्देशं तस्य भाषितम् । कार्यतश्चोत्तमादीनां कार्यों भाषाव्यक्तिक्रमः ॥ ---धनंजय, दशरूपक ( २.६५ - ६ )
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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