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________________ ६०४ प्राकृत साहित्य का इतिहास प्राकृतव्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने के लिये श्रीचिह्नकाव्य अथवा गोविन्दाभिषेक की रचना की गई है। इस काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में श्रीशब्द का प्रयोग हुआ है, इसलिये इसे श्रीचिह्न कहा गया है। यह काव्य १२ सगों में है, इसके . कर्ता का नाम कृष्णलीलाशुक है जो कवि सर्वभौम नाम से प्रसिद्ध थे और कोदंडमंगल या विल्वमंगल नाम से भी कहे जाते थे। कृष्णलीलाशुक केरल के निवासी थे, इनका समय ईसवी सन् की १३वीं शताब्दी माना जाता है। कृष्णलीलाशुक ने श्रीचिह्नकाव्य के केवल ८ सगों की रचना की है, शेप चार सर्ग श्रीचिह्नकाव्य के टीकाकार दुर्गाप्रसाद यति ने लिखे हैं। दुर्गाप्रसाद यति की संस्कृत टीका विद्वत्तापूर्ण है, और बिना टीका के काव्य का अर्थ समझ में आना कठिन है। प्राकृतव्याकरण के सूत्रों का अनुकरण करने के कारण इस काव्य में शुष्कता अधिक आ गई है, जिससे काव्य-सौष्ठव कम हो गया है। जनसंपर्क से दूर हो जाने पर प्राकृत भाषायें जब अन्तिम श्वास ले रही थीं तो उन्हें प्राकृत व्याकरणों की सहायता से कृत्रिमता प्रदान कर किस प्रकार जीवित रक्खा जा रहा था, उसका यह काव्य एक उदाहरण है। ___ इस काव्य में कृष्ण की लीला का वर्णन किया गया है। निम्नलिखित गाथाओं में प्राकृतप्रकाश के उदाहरण दिये हैं ईसि-पिक्क फल-पाअवे महावेडिसे विअण-पल्लवे वणे । सो जणो असुइणो अ-पावईगालअम्मि लसिओ मिअंगिओ ॥ १.६ ॥ ईसपक्क फलए इस-स्थली वेडसे वअण-पल्लवे ठिओ । १. डाक्टर ए० एन० उपाध्ये ने इस काव्य के प्रथम सर्ग का संपादन भारतीय विद्या ३.१ में किया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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