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________________ ५९४ प्राकृत साहित्य का इतिहास वैराग्य की महत्ता का प्रदर्शन करते हुए कवि ने कहा है सोचेय किं ण राओ मोत्तूण बहुच्छलाइं गेहाई। पुरिसा रमंति बद्धज्झरेसु जं काणणंतेसु॥ -क्या यह राग नहीं कहा जायेगा कि अनेक छल-छिद्रों से पूर्ण गृहवास का त्याग कर पुरुप झरनों से शोभित काननों में रमण करते हैं ? हृदय को समझाते हुए वह लिखता हैहियय ! कहिं पि णिसम्भसु कित्तियमासाहओ किलिम्मिहिसि | दीणो वि वरं एक्कस्स ण उण सयलाए पुहवीए॥ -हे हृदय ! कहीं एक स्थान पर विश्राम करो, निराश होकर कबतक भटकते फिरोगे ? समस्त पृथ्वीमण्डल की अपेक्षा किसी एक का दीन बनकर रहना श्रेयस्कर है। अन्त में कवि ने सूर्यास्त, संध्या, चन्द्र, कामियों की चर्चा, शयनगमन के लिये औत्सुक्य, प्रियतमा का समागम, परिरंभ और प्रभात आदि का वर्णन कर यशोवर्मा की स्तुति की है। / महुमहविअअ (मधुमथविजय ) वाक्पतिराज' की दूसरी रचना है मधुमथविजय जिसका वाक्पतिराज ने अपने गउडवहो में उल्लेख किया है। दुर्भाग्य से यह कृति अब नष्ट हो गई है। इसका उल्लेख अभिनवगुप्त (ध्वन्यालोक १५२.१५ की दीका में) ने किया है, इससे इस ग्रंथ की लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है। हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन की अलङ्कारचूडामणिवृत्ति (१.२४ पृ० ८१) में इस ग्रन्थ की निम्नलिखित गाथा उद्धत की है लीलादाढग्गुवूढसयलमहिमंडलस्स चिअ अज्ज | कीस मुणालाहरणं पि तुझ गरुआइ अंगम्मि । हरिविजय . हरिविजय के रचयिता सर्वसेन हैं। यह कृति भी अनुपलब्ध है । हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन की अलङ्कारचूडामणि (पृष्ठ १७१
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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