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________________ सुदंसणाचरिय सौ वर्ष जीता है और उसे पचास वर्ष उपवास करने का फल होता है | अवंती नगरी में योगिनी के प्रथम पीठ का उल्लेख है जहाँ सिद्धनरेन्द्र वास करता था | दिन के समय वह प्रमदाओं और रात्रि के समय योगिनियों के साथ क्रीड़ा किया करता था। एक दिन उसने श्मशान में पहुँचकर भूत, पिशाच, राक्षस, यक्ष और योगिनियों का आह्वान किया। असियक्ष नाम का एक यक्ष उसके सामने उपस्थित हुआ। दीपक के उद्योत में मोदक आदि अच्छी तरह देखकर खाने में क्या दोष है ? इसका उत्तर दिया गया है। सीहकथा में कपर्दिक यक्ष का उल्लेख है। भोगों के अतिरेक में मलदेव की और सल्लेखना का प्रतिपादन करने के लिये मलयचन्द्र की कथा वर्णित है । अन्त में सुपार्श्वनाथ के निर्वाणगमन का वर्णन है । सुदंसणाचरिय ( सुदर्शनाचरित ) सुदंसणाचरिय में शकुनिकाविहार नामक मुनिसुव्रतनाथ के जिनालय का वर्णन किया गया है। यह सुंदर रचना प्राकृत पद्य में है। संस्कृत और अपभ्रंश का भी इसमें प्रयोग है। ग्रंथ के कर्ता जगञ्चन्द्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि ( सन् १२७० में स्वर्गस्थ ) हैं । गुर्जर राजा की अनुमतिपूर्वक वस्तुपाल मंत्री के समक्ष अर्बुदगिरि (आबू) पर इन्हें सूरिपद प्रदान किया गया था। इस चरित में धनपाल, सुदर्शना, विजयकुमार, शीलवती, अश्वावबोध, भ्राता, धात्रीसुत और धात्री नाम के आठ अधिकार हैं जो १६ उद्देशों में विभक्त हैं। सब मिलाकर चार हजार से अधिक गाथायें हैं। रचना प्रौढ़ है, शार्दूलविक्रीडित आदि छंदों का प्रयोग हुआ है। तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति पर काफी प्रकाश पड़ता है। १. आत्मवल्लभ ग्रंथ सीरीज़ में वलाद (अहमदाबाद) से सन् १९३२ में प्रकाशित । मुनि पुण्यविजयजी के कथनानुसार देवेन्द्रसूरि ने अन्य किसी प्राचीन सुदंसणाचरिय के आधार से इस ग्रंथ की रचना की है। ३६ प्रा० सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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