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________________ रयणचूडरायचरिय ५४५ वरि करि कवलिय नयणजुयलु वरि महु सहि फुट्टउ ॥ मं ढोझउ महंतु अन्ननारिहिं सहु दिवउ ॥१॥ तहा वरि दारिद्दउ वरि अणाहु वरि वरु दुन्नालिउ । वरि रोगाउरु वरि कुरुवु वरि निग्गुणु हालिउ । वरि करणचरणविहूणदेहू वरि भिक्खभमंतउ मं राउवि सवत्तिजुत्तु मइं पइ संपत्तउ ॥२॥ कोई गर्विणी अपनी सखी को लक्ष्य करके कह रही है, मर जाना अच्छा है, गर्भ में नष्ट हो जाना श्रेयस्कर है, बर्छियों के द्वारा घायल हो जाना उत्तम है, प्रज्वलित दावानल में फेंक दिया जाना ठीक है, हाथी से भक्षण किया जाना श्रेयस्कर है, दोनों आँखों का फूट जाना उत्तम है, लेकिन अपने पति को पर नारियों के साथ देखना अच्छा नहीं। इसी प्रकार दारिद्रय श्रेयस्कर है, अनाथ रहना अच्छा है, अनाड़ी रहना उत्तम है, रोग से पीड़ित होना ठीक है, कुरूप होना अच्छा है, निर्गुण रहना श्रेयस्कर है, लूला लँगड़ा हो जाय तो भी कोई बात नहीं, भिक्षा माँगकर खाना उत्तम है, लेकिन कभी अपने पति को सपनियों के साथ देखना अच्छा नहीं। पाटलिपुत्र में एक अत्यंत सुंदर देवभवन था। वह सुंदर शालभंजिकाओं से शोभित था। उसके काष्टनिर्मित उत्तरंग और देहली अनेक प्रकार के जंतु-रूपकों से शोभायमान थे। वहाँ बाई ओर रति के समान रमणीय एक स्तंभ-शालभंजिका बनी हुई थी, जिसके केशकलाप, नयननिक्षेप, मुखाकृति तथा अंग-प्रत्यंग आकर्षक थे। अमरदत्त और मित्रानंद नाम के दो मित्रों ने इस देवभवन में प्रवेश किया। अमरदत्त पुत्तलिका के सौन्दर्य को देखकर उस पर आसक्त हो गया। पता लगा कि सोप्पारय (शूर्पारक) देश के सूरदेव नामक स्थपति ने उज्जैनी के राजा महेश्वर की कन्या रत्नमंजरी का रूप देखकर इस पुत्तलिका को गढ़ा है। मित्रानंद पहले सोप्पारय गया, वहाँ से फिर उज्जैनी पहुँचा, और अपनी बुद्धि के चातुर्य से वह महेश्वर की राजकुमारी रनमंजरी ३५ प्रा० सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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