SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 530
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२० प्राकृत साहित्य का इतिहास राजा-संसार में अनन्तकाल से भ्रमण करते हुए हमने तो कोई भी वस्तु स्थिर नहीं देखी। रानी-इतनी बड़ी समृद्धि के मौजूद होने पर इतना दुष्कर कार्य करने क्यों चल पड़े ? __राजा-शरद्कालीन मेघों के समान क्षणभंगुर इस समृद्धि में तुम क्यों विश्वास करती हो? । रानी-युवावस्था में ही पाँच प्रकार के इन सुंदर विषयभोगों का तुम क्यों त्याग करते हो ? राजा-जिसने इनका स्वरूप जान लिया है, वह परिणाम में दुखकारी इन विषयभोगों का स्मरण क्यों करेगा ? रानी-यदि तुम प्रव्रज्या ग्रहण कर लोगे तो तुम्हारे स्वजनसंबंधी रुदन करेंगे। राजा-धर्म की परवा न करते हुए ये लोग अपने-अपने स्वार्थ के वश ही रुदन करेंगे।' आराधना को स्पष्ट करने के लिये मधुराजा और सुकोसल मुनि के दृष्टांत दिये गये हैं। फिर विस्तार से आराधना का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए उसके चार मूल द्वार बताये हैं। १. राजा-तं होज न वा को मुणति तडिलयाचंचले जीए । देवी-दुस्सहपरीसहे कहं सहिहि तुह सुंदरा सरीरसिरी ॥ राजा-किं सुन्दरत्तमेयाए अद्विचम्मावणद्धाए । देवी-कइयवि दिणाणि निवसह सगिहे चिय कीस सुगा होह ॥ राजा-बहुविग्धे सेयत्थे खणंपि कह णिवसिउं जुत्तं । देवी-पेच्छह तहावि नियपुत्तरज्जलच्छीए पवरविच्छड्डं ॥ राजा-संसारंमि भमंतेहिं गंतसो किं ठियमदिडं । देवी-किं दुकोण इमिणा संतीए समुद्धराए रिद्धीए ॥ राजा-सरयन्मभंगुराए इमीए को तुज्झ वीसंभो। देवी-पंचप्पयारपवरे अपत्तकाले वि चयसि किं विसए॥ राजा-मुणियसरूवो को ते सरेज पज्जतदुक्खकरे । देवी-तइ पन्वजोवगए सुचिरं परिदेविही सयणवग्गो॥ राजा,-नियनियकज्जाइं इमो परिदेवइ धम्मणिरवेक्खो।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy