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________________ संवेगरंगशाला ५१६ वृत्तिकार अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि ने इसका संशोधन किया। इस कृति में संवेगभाव का प्रतिपादन है और यह शान्तरस से भरपूर है। संवेगरस की मुख्यता प्रतिपादन करते हुए कहा है जह जह संवेगरसो वण्णिनइ तह तहेव भव्वाणं । भिजन्ति खित्तजलमिम्मयामकुंभ व्व हिययाई ॥ सुचिरं वि तवो तवियं चिण्णं चरणं सुयं पि बहुपढियं । जइ नो संवेगरसो ता तं तुसखण्डणं सव्वं ॥ -जैसे जैसे भव्यजनों के प्रति संवेगरस का वर्णन किया. जाता है, वैसे वैसे-जिस प्रकार मिट्टी के बने हुए कच्चे घड़े पर जल फेंकने से वह टूट जाता है-उनका हृदय द्रवित हो जाता है। बहुत काल तक तप किया, चारित्र का पालन किया, श्रुत का बहुपाठ किया, लेकिन यदि संवेगरस नहीं है तो सब कुछ धान के तुष की भाँति निस्सार है।। ___ गौतमस्वामी महसेन राजर्षि की कथा कहते हैं । राजा संसार का त्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण करना चाहता है । इस अवसर पर राजा-रानी का संवाद देखिये राजा-विद्युत् के समान चंचल इस जीवन में पता नहीं कब क्या हो जाये ? ___ रानी-तुम्हारे सुंदर शरीर की शोभा दुस्सह परीषह को कैसे सहन कर सकेगी? ___ राजा-अस्थि और चर्म से बद्ध इस शरीर में सुन्दरता कहाँ से आई ? __ रानी-हे राजन् ! कुछ दिन तो और गृहवास करो, ऐसी क्या जल्दी पड़ी है ? ___ राजा-कल्याण के कार्य में बहुत विघ्न आते हैं, इसलिये क्षणभर भी यहाँ रहना उचित नहीं। रानी-फिर भी अपने पुत्रों और राज्यलक्ष्मी के इतने बड़े विस्तार का तो जरा ध्यान करो।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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