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________________ ૪૮૦ प्राकृत साहित्य का इतिहास इसमें प्रयोग है। मुख्य छंद आर्या है। कुछ पद्य अपभ्रंश में भी हैं। सब मिलाकर इसमें १३४२ पद्य हैं जिनमें श्रीपाल की कथा के बहाने सिद्धचक्र का माहात्म्य बताया गया है। श्रीपालचरित्र का प्रतिपादन करनेवाले और भी आख्यान संस्कृत और गुजराती में लिखे गये हैं। ___ उज्जैनी नगरी में प्रजापाल नाम का एक राजा था। उसके दो रानियाँ थीं, एक सौभाग्यसुंदरी और दूसरी रूपसुंदरी । पहली माहेश्वर कुल से आई थी, और दूसरी श्रावक के घर पैदा हुई थी। पहली की पुत्री का नाम सुरसुंदरी, दूसरी की पुत्री का नाम मदनसुंदरी था। दोनों ने अध्यापक के पास लेख, गणित, लक्षण, छंद, काव्य, तर्क, पुराण, भरतशास्त्र, गीत, नृत्य, ज्योतिष, चिकित्सा, विद्या, मंत्र, तंत्र और चित्रकर्म आदि की शिक्षा प्राप्त की । जब दोनों राजकुमारियाँ विद्याध्ययन समाप्त करके लौटीं तो राजा ने उन्हें एक समस्यापद 'पुन्निहिं लब्भइ एहु' पूर्ण करने को दिया । सुरसुन्दरी ने पढ़ा धणजुव्वणसुवियड्ढपण, रोगरहिअ निअ देहु । मणवल्लह मेलावडउ, पुन्निहिं लब्भइ एहु॥ -धन, यौवन, सुविचक्षणता, रोगरहित देह का होना, और मन के वल्लभ की प्राप्ति, यह सब पुण्य से मिलता है। मदनसुन्दरी ने निम्नलिखित गाथा पढ़ी विणयविवेयपसण्णमणु सीलसुनिम्मलदेहु । परमप्पह मेलावडउ, पुन्निहिं लब्भइ एहु॥ -विनय, विवेक, मन की प्रसन्नता, शील, सुनिर्मल देह और परमपद की प्राप्ति, यह सब पुण्य से मिलता है । एक दिन राजा ने अपनी पुत्रियों से पूछा कि तुम लोग कैसा वर चाहती हो । सुरसुंदरी ने उत्तर दिया ता सव्वकलाकुसलो, तरुणो वररूवपुण्णलायन्नो । एरिसउ होइ वरो, अहवा ताओ चिअ पमाणं ॥ १. देखिये जैन ग्रंथावलि, पृष्ठ २३४, १६१ ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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