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________________ - महाराष्ट्री २५ है। इससे महाराष्ट्री प्राकृत के साहित्य की समृद्धता का सूचन होता है । संस्कृत नाटकों में सर्वप्रथम कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में महाराष्ट्री के प्रयोग दिखाई देते हैं ।' दंडी को छोड़कर पूर्वकाल (ईसवी सन् १००० के पूर्व ) के अलंकारशास्त्र के पंडित महाराष्ट्री से अनभिज्ञ थे । ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से महाराष्ट्री प्राकृत अत्यन्त समृद्ध है। डाक्टर पिशल के शब्दों में 'न कोई दूसरी प्राकृत साहित्य में कविता और नाटकों के प्रयोग में इतनी अधिक लाई गई है और न किसी दूसरी प्राकृत के शब्दों में इतना अधिक फेरफार हुआ है ।' तथा 'महाराष्ट्री प्राकृत में संस्कृत शब्दों के व्यंजन इतने अधिक और इस प्रकार से निकाल दिये गये हैं कि अन्यत्र कहीं यह बात देखने में नहीं आती। ... 'ये व्यंजन इसलिये हटा 1. प्रोफेसर जैकोबी ने महाराष्ट्री का समय कालिदास का समय (ईसवी सन की तीसरी शताब्दी) और डाक्टर कीथ ने चौथी शताब्दी के बाद स्वीकार किया है। २. डाक्टर मनोमोहन घोष के अनुसार मध्यभारतीय-आर्यभाषा के रूप में महाराष्ट्री काफी समय बाद (ईसवी सन् ६००) स्वीकृत हुई, कर्पूरमंजरी की भूमिका, पृष्ठ ७६।। डा० ए० एन० उपाध्ये ने भी महाराष्ट्री.को शौरसेनी का ही वाद का रूप स्वीकार किया है, देखिये चन्दलेहा की भूमिका । डाक्टर ए. एम. घाटगे उक्त मत से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार हेमचन्द्र आदि वैयाकरणों ने जो प्राकृत का विवेचन किया है, उससे उनका तात्पर्य महाराष्ट्री प्राकृत से ही है, देखिये जरनल ऑव युनिवर्सिटी ऑव वम्बई, मई, १९३६ में 'महाराष्ट्री लैंग्वेज और लिटरेचर' नाम का लेख । ३. उदाहरण के लिये नीचे लिखे शब्दों पर ध्यान दीजिये का ( कच, कृत), कइ (कति, कपि, कवि, कृति), काअ (काक, काच, काय ), मभ (मत, मद, मय, भृग, मृत), सुअ (शुक, सुत, श्रुत)।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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