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________________ ४३४ . प्राकृत साहित्य का इतिहास -तू क्या नहीं जानता कि तू मेरे हृदय को चुराकर ले गया था, और अब मेरी आँखें मीचने के बहाने तू सचमुच अँधेरा कर रहा है ? आज मैं अपने बाहुपाश को तेरे कण्ठ में डाल रही हूँ। तू अपने इष्टदेव का स्मरण कर, या फिर अपने पुरुषार्थ का प्रदर्शन कर। 'इस प्रकार दोनों में प्रेमपूर्ण वार्तालाप होता रहा। कुमार रात भर वहाँ रहा और सुबह होने के पहले ही अपने स्थान को लौट गया। सुबह होने पर दासी दातौन-पानी लेकर अपनी मालकिन के कमरे में आई, लेकिन मालकिन गहरी नींद में सोई पड़ी थी। दासी ने सोचा कि जिस स्त्री का पति परदेश गया है, उसका इतनी देर तक सोना अच्छा नहीं। वह चुपचाप उसके पास बैठ गई। कुछ समय बाद उसके जागने पर दासी ने पूछा "स्वामिनि ! आज इतनी देर तक आप क्यों सोती रहीं।" “पति के वियोग में सारी रात नींद नहीं आई। सवेरा होने पर अभी-अभी आँख लगी थी।" "स्वामिनि ! आपके ओठों में यह क्या हो गया है ?" "ठंढ से फट गये हैं।" "स्वामिनि ! आपकी आँखों का काजल क्यों फैल गया है ?" "पति के वियोग में मैं रात भर रोती रही, मैंने आँखें मल ली हैं।" "तुम्हारे शरीर पर ये नखक्षत कैसे हैं?" __“पति के वियोग में मैंने अपने आपका गाढ़ आलिंगन किया है।" "तो फिर कल से मैं तेरे पास ही सोऊँगी और हम एक दूसरे का आलिंगन. करके सोयेंगे।" "छिः छिः! पतिव्रता स्त्री के लिये यह अनुचित है। "स्वामिनि ! आज तुम्हारा केशों का जूड़ा क्यों शिथिल दिखाई दे रहा है ?"
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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