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________________ कथाकोषप्रकरण ४३३ का उत्थान कैसे होता है ? स्वर भेद कैसे होते हैं ? और ग्राम, मूर्च्छना आदि रागभेद कितने प्रकार के होते हैं ? आदि विषयों का प्रतिपादन है। फिर भरतशास्त्र में उल्लिखित ६४ हस्तक और ४ भ्रूभङ्गों के साथ तारा, कपोल, नासा, अधर, पयोधर, चलन आदि भङ्गों के अभिनय का निर्देश है। इस कथानक की एक अवांतर कथा देखिये किसी स्त्री का पति परदेश गया हुआ था। वह अपने पीहर में रहने लगी थी। एक दिन अपने भवन के ऊपर की मंजिल में बैठी हुई वह अपने केश सँवार रही थी कि इतने में एक राजकुमार उस रास्ते से होकर गुजरा। दोनों की दृष्टि एक हुई। सुंदरी को देखकर राजकुमार ने एक सुभाषित पढ़ा अणुरूवगुणं अणुरुवजोव्वणं माणुसं न जस्सस्थि । किं तेण जियंतेण पि मानि नवरं मओ एसो॥ -जिस स्त्री के अनुरूप गुण और अनुरूप यौवनवाला पुरुष नहीं है, उसके जीने से क्या लाभ ? उसे तो मृतक ही समझना चाहिये। स्त्री ने उत्तर दियापरि जिउंन याणइ लच्छिं पत्तं पि पुण्णपरिहीणो। विक्कमरसा हु पुरिसा मुंजंति परेसु लच्छीओ ॥ -पुण्यहीन पुरुष लक्ष्मी का उपभोग करना नहीं जानता। साहसी पुरुष ही पराई लक्ष्मी का उपभोग कर सकते हैं। राजकुमार सुन्दरी का अभिप्राय समझ गया। एक बार वह रात्रि के समय गवाक्ष में से चढ़कर उसके भवन में पहुँचा, और पीछे से आकर उसने उस सुन्दरी की आँखें मीच लीं। सुन्दरी ने कहा मम हिययं हरिऊणंगओसि रे किं न जाणिओ तं सि । सच्चं अच्छिनिमीलणमिसेण अंधारयं कुणसि ॥ ता बाहुलयापासं दलामि कंठम्मि अज निब्भंतं । सुमरसु य इट्ठदेवं पयडसु पुरिसत्तणं अहवा।। २८ प्रा० सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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