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________________ ४२४ प्राकृत साहित्य का इतिहास छात्रों का वर्णन देखिये करघायकुडिलकेसा णिहयचलणप्पहारपिहुलंगा। उण्णयभुयसिहराला परपिंडपरूढबहुमंसा ॥ धम्मत्थकामरहिया बंधवधणमित्तवजिया दूरं । केइत्थ जोव्वणत्था बालञ्चिय पवसिया के वि॥ परजुवइदंसणमणा सुहयत्तणरूवगठिया दूरं । उत्ताणवयणणयणा इटाणुग्घट्ट-भट्ठोरू॥ -अपने उलझे हुए केशों को हाथ से फटकारने वाले, पैरों के निर्दय प्रहार पूर्वक चलने वाले, पृथु शरीर वाले, उन्नत भुजशिखर वाले, दूसरे का भोजन करके पुष्ट मांसवाले, धर्म, अर्थ और काम से रहित, बांधव, धन और मित्रों द्वारा दूर से ही वर्जित; कोई युवा थे और कोई बाल्यावस्था में ही यहाँ चले आये थे; पर-युवतियों को देखने के लिये उत्सुक, सुभग होने के कारण रूप से गर्विष्ठ, मुख और नयनों को ऊपर उठाकर ताकने वाले तथा सुन्दर, चिकनी और मसृण जंघावाले (छात्र वहाँ रहते थे)। विद्या, विज्ञान और विनय से रहित इन छात्रों का आपस में असंबद्ध अक्षर-प्रलाप' सुनकर कुमार को बहुत बुरा लगा। का संस्करण) में पत्रच्छेद्य का उल्लेख है। काले महोदय के अनुसार भित्ति अथवा भूमि को चित्रित करने की कला को पत्रच्छेद्य कहते हैं। कॉवेल के अनुसार इस कला के द्वारा पत्तों को काटकर उनके सुन्दर डिजाइन बनाये जाते थे; देखिये ई० जी० थॉमस का बुलेटिन स्कूल ऑव ओरिंटिएल स्टडीज़ (जिल्द ६, पृ० ५१५-७ ) में लेख । २. इस वार्तालाप से तत्कालीन भाषा पर प्रकाश पड़ता है अल्लीणो कुमारो। जंपिओ पयत्तो। रेरे, आरोह (= उल्लंठ) भण रे जाव ण पम्हुसइ । जनार्दन, प्रच्छडं कत्थ तुम्भे कल्ल जिमियल्लया। तेण भणियं 'साहिलं जे ते तओ तस्स वलक्खएल्लयह किराडहं (किराड = बनिया) तणए जिमियल्लया। तेण भणियं
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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