SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास नाम दिया है । पिशल के अनुसार बोलियों में जो बोलचाल की भाषायें व्यवहार में लाई जाती हैं, उनमें शौरसेनी का स्थान सर्वप्रथम है (प्राकृतभाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ ३६)। हर्मन जैकोबी ने इसे क्लासिकल-पूर्व (प्रीक्लासिकल) नाम दिया है। दुर्भाग्य से दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचीन शास्त्रों की भाँति संस्कृत नाटकों के भी आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित नहीं हुए, फिर भी अश्वघोष (ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी) तथा भास (ईसवी सन की तीसरी शताब्दी) के नाटकों के पद्यभाग में जो रूप मिलते हैं वे शौरसेनी के माने जाते हैं, महाराष्ट्री के नहीं। इसी प्रकार शूद्रक के मृच्छकटिक और मुद्राराक्षस के पद्यभाग में, और कर्पूरमंजरी में भी शौरसेनी ही रूप उपलब्ध होते हैं। इससे शौरसेनी की प्राचीनता पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। संस्कृत से प्रभावित होने के कारण इसमें प्राचीन कृत्रिम रूपों की अधिकता पाई जाती है। व्याकरण के नियमानुसार शौरसेनी में त के स्थान में द और थ के स्थान में ध हो जाता है (वररुचि १२.३; हेमचन्द्र ४.२६७ , मार्कण्डेय ६.२.२०,२४ ; रामशर्मा तर्कवागीश २.१.५) । लेकिन जैकोबी आदि विद्वान् इस परिवर्तन को शौरसेनी की विशेषता नहीं स्वीकार करते। प्राकृत भाषाओं की प्रथम अवस्थाओं में इस परिवर्तन के चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होते। अश्वघोष के नाटकों में शौरसेनी का प्राचीन रूप उपलब्ध १. इस सम्बन्ध में डाक्टर मनोमोहन घोष द्वारा संपादित कर्पूरमंजरी के नये संस्करण की विद्वत्तापूर्ण भूमिका देखने योग्य है। २. शौरसेनी की विशेषता के द्योतक दाणम्मि ( दाने ), ज्व (इव), जाणित्ता (ज्ञात्वा ), भविय ( भूत्वा ), भोदूण ( भूत्वा), किच्चा (कृत्वा ), पावदि (प्राप्नोति), मुणदि (जानाति) आदि रूप - पिशल ने प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृष्ठ३८-३९ में दिये हैं। शौरसेनी में कुछ अर्धमागधी के रूप भी मिलते हैं । संज्ञा शब्दों के कर्ता एकवचन का रूप यहाँ ओकारान्त होता है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy