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________________ शौरसेनी बोलना चाहिये । हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत के पश्चात् शौरसेनी का ही उल्लेख किया है, उसके बाद मागधी और पैशाची का । साहित्यदर्पण ( ६.१५६,१६५ ) में सुशिक्षित स्त्रियों के अलावा बालक, नपुंसक, नीच ग्रहों का विचार करनेवाले ज्योतिपी, विक्षिप्त और रोगियों को नाटकों में शौरसेनी बोलने का विधान है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व (१०.१) में शौरसेनी से ही ... प्राच्या का उद्भव बताया है (प्राच्यासिद्धिः शौरसेन्याः) । लक्ष्मीधर ने षड्भाषाचन्द्रिका (श्लोक ३४ ) में कहा है कि यह भाषा छद्मवेषधारी साधुओं, किन्हीं के अनुसार जैनों तथा अधम और मध्यम लोगों के द्वारा बोली जाती थी। वररुचि ने संस्कृत को शौरसेनी का आधारभूत स्वीकार किया है (प्राकृतप्रकाश १२.२), और शौरसेनी के कुछ नियमों का विवेचन कर शेष नियमों को महाराष्ट्री के समान समझ लेने को कहा है (१२.३२)। ध्वनितत्त्व की दृष्टि से शौरसेनी मध्यभारतीय आर्यभाषा के विकास में संक्रमणकाल की अवस्था है, महाराष्ट्री का स्थान इसके बाद आता है ।' दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचीन शास्त्रों की यह भाषा है जो प्रायः पद्य में है, पिशल ने इसे जैन शौरसेनी १. इस सम्बन्ध के वाद विवाद के लिये देखिये पिशल, प्राकृत. भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ १८-२५, ३९-४३; कोनो और लानमन, कर्पूरमंजरी, पृष्ठ १३९ आदि; एम. घोष का · जरनल ऑव डिपार्टमेण्ट ऑव लैटर्स, जिल्द २३, कलकत्ता, १९३३ में प्रकाशित 'महाराष्ट्री शौरसेनी के बाद का रूप' नामक लेख; ए० एम० घाटगे का जरनल ऑव द युनिवर्सिटी ऑव बंबई, जिल्द ३, भाग ४ में 'शौरसेनी प्राकृत' नाम का लेख; एस. के. चटर्जी का जरनल ऑव डिपार्टमेण्ट ऑव लैटर्स, जिल्द २९, कलकत्ता, १९३६ में 'द स्टडी ऑव न्यू इण्डोआर्यन' नाम का लेख; एम० ए० घाटगे का जरनल ऑव द यूनिवर्सिटी ऑव बंबई, जिल्द ४, भाग ६ आदि में प्रकाशित 'महाराष्ट्री लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर' नाम का लेख; ए० एन० उपाध्ये, कंसवहो की भूमिका, पृष्ठ ३९-४२॥
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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