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________________ समराइञ्चकहा ४०३ “कहाँ जाओगे ?" "सुशर्मनगर को।" "वहाँ क्या काम है ?" "राजा की आज्ञापूर्वक इस सार्थवाहपुत्र को वहाँ ले जाना है।" "तुम्हारे पास कुछ धन है ?" "हाँ, है।" "कौन-सा ?" "इस सार्थवाहपुत्र को राजा ने अलंकार दिये हैं।" "देखें, कौन से हैं ?" व्यापारियों ने सीधे स्वभाव से दिखा दिये । कोपाध्यक्ष ने उन्हें पहचान लिया। यहाँ कुलदेवता (चण्डी) की पूजा के लिये आटे के बने हुए मुर्गे (पिट्ठमयकुक्कुड) की बलि देकर मांस के स्थान पर आटे को भक्षण करने का उल्लेख है।' पांचवें भव में गुणसेन का जीव जय और अग्निशर्मा का जीव विजय बनता है। जय और विजय दोनों सगे भाई हैं। जय राजपद को त्याग कर श्रमणदीक्षा ग्रहण करता है, और विजय उसकी हत्या कर उससे बदला लेता है। मूल कथा यहाँ बहुत छोटी है, अन्तर्कथायें ही भरी हुई हैं जिससे मूलकथा का महत्त्व कम हो गया है। दो प्रकार के मार्गों का प्रतिपादन करते हुए सुन्दर रूपकों द्वारा धर्मोपदेश दिया है। एक सरल मार्ग है, दूसरा वक्र | वक्र मार्ग द्वारा आसानी से जा सकते हैं, लेकिन इसमें समय बहुत लगता है। १. पुष्पदन्त के जसहरचरिय (२,१७-२०) में भी इस प्रकार का उल्लेख है। उत्तर विहार में आजकल भी यह रिवाज है। कहीं हलवे का बकरा बनाकर उसे काटा जाता है, कहीं श्वेत कूष्माण्ड (कुम्हडा) काटने का रिवाज है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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