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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास -आठ निर्ग्रन्थों ने सौराष्ट्र में प्रवेश किया, वे कैथ के नीचे बैठे, ऊपर से कैथ टूट कर गिरा जिससे उनका सिर फट गया। ( यह देख कर) शिष्य आहा! आहा ! करते हुए हँसने लगे। एक विष्णुगीतिका देखिएउवसम साहुवरिट्ठया ! न हु कोवो वण्णिओ जिणिंदेहिं । हुँति हु कोवणसीलया, पावंति बहूणि जाइयव्वाइं॥ -हे साधुश्रेष्ठ ! उपशान्त हो, जिनेन्द्र भगवान ने कोप करना नहीं बताया है। जो क्रोधी स्वभाव के होते हैं उन्हें अनेक गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। देव, राक्षस आदि के सम्बन्ध में कहा है-देव चार अंगुल भूमि को स्पर्श नहीं करते, राक्षस महान् शरीरवाले होते हैं, उनके पैर बहुत बड़े-बड़े होते हैं, पिशाच बहुत जलवाले प्रदेश में नहीं विचरण करते, ऋषियों का शरीर तप से शोषित रहता है और चारण जल के किनारे जलचर जीवों के कष्ट को दूर करते हुए नहीं संचरण करते । बनिज-व्यापार के लिए व्यापारी चीनस्थान, सुवर्णभूमि, कमलपुर, यवनद्वीप, सिंहल, बर्बर, सौराष्ट्र और उंबरावती के तट पर जाया करते थे। चीणभूमि के साथ हूण और खसभूमि का भी उल्लेख है। टंकण देश में पहुँचकर व्यापारी लोग नदी के किनारे अपने माल के अलगअलग ढेर लगा, लकड़ी की आग जला एक ओर बैठ जाते। टंकण (म्लेच्छ) इस धुंए को देखकर वहाँ आ जाते, और फिर ( इशारों आदि से) लेन-देन शुरू हो जाता । रत्नद्वीप और सुवर्णभूमि का यहाँ उल्लेख है। ___ पिप्पलाद को अथर्ववेद का प्रणेता कहा गया है। वाराणसी में सुलसा नाम की एक परिब्राजिका रहती थी। त्रिदंडी याज्ञवल्क्य से वाद में हार जाने के कारण वह उसकी सेवा-सुश्रूषा करने लगी। इन दोनों से पिप्पलाद' का जन्म हुआ | पिप्पलाद ब्राह्मण धर्म में पिप्पलाद अथर्ववेद के प्रणेता माने जाते हैं । अथर्व .
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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