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________________ ३६४ प्राकृत साहित्य का इतिहास णाम कोई वेज्जो आउरं अमयउसहपाणपरंमुहं ओसढमिति उव्विलयं मणोभिलसियपाणववएसेण उसहं तं पज्जेति । कामकहारतहितयस्स जणस्स सिंगारकहावसेण धम्मं चेव परिकहेमि ।' -नरवाहनदत्त आदि लौकिक काम-कथायें सुनकर लोग एकांत में कामकथाओं का आनन्द लेते हैं। ज्वरपित्त से यदि किसी रोगी का मुँह कडुआ हो जाये तो जैसे उसे गुड़, शकर, खाँड और मत्स्यंडिका (बूरा) आदि भी कडुवी लगती है, वैसे ही सुगति को ले जानेवाले धर्म को सुनने की लोग इच्छा नहीं करते । धर्म, अर्थ और काम से ही सुख की प्राप्ति होती है, तथा धर्म, अर्थ और काम का मूल है धर्म, और इसमें लोग मंदतर रहते हैं। अमृत औषध को पीने की इच्छा न करनेवाले किसी रोगी को जैसे कोई वैद्य मनोभिलाषित वस्तु देने के बहाने उसे अपनी औषध भी दे देता है, उसी प्रकार जिन लोगों का हृदय कामकथा के श्रवण करने में संलग्न है, उन्हें शृंगारकथा के बहाने मैं अपनी इस धर्मकथा का श्रवण कराता हूँ। प्रेमाख्यान कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सब बातों को सोचकर जैन आचार्यों ने अपनी धर्मकथाओं में श्रृंगाररस से पूर्ण प्रेमाख्यानों का समावेश कर उन्हें लोकोपयोगी बनाया। फल यह हुआ कि उनकी रचनाओं में मदन महोत्सवों के वर्णन जोड़े गये और वसंत क्रीड़ाओं आदि के प्रेमपूर्ण चित्र उपस्थित किये जाने लगे। ऐसे रोमांचकारी अवसरों पर कोई युवक किसी षोडशी को देखकर अपना भान खो बैठता, और कामज्वर से पीड़ित रहने लगता; युवती की भी यही दशा होती। कपूर, चन्दन और जलसिंचित तालवृन्त आदि से उसका शीतोपचार किया जाता | गुप्तरूप से प्रेम-पत्रिकाओं का आदान-प्रदान आरंभ १. वसुदेवहिण्डी, भाग २, मुनि जिनविजय जी के वसंत महोत्सव, संवत् १९८४ में 'कुवलयमाला' लेख से उद्धृत ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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