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________________ सम्मइपयरण ३३१ (ख) दर्शन-खंडन-मंडन सम्मइपयरण ( सन्मतिप्रकरण ) सिद्धसेन दिवाकर विक्रम संवत् की ५वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, इन्होंने सन्मतितर्कप्रकरण की रचना है। जैनदर्शन और न्याय का यह एक प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें नयवाद का विवेचन कर अनेकांतवाद की स्थापना की गई है । इस पर मल्लवादी ने टीका लिखी है जो आजकल अनुपलब्ध है। दिगम्बर विद्वान् सन्मति ने इस पर विवरण लिखा है। प्रद्युम्नसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि ने इस महान् ग्रंथ पर वादमहार्णव या तत्वबोधविधायिनी नाम की एक विस्तृत टीका की रचना की है। सन्मतितर्क में तीन काण्ड हैं। प्रथम काण्ड में ५४ गाथायें हैं जिनमें नय के भेदों ओर अनेकांत की मर्यादा का वर्णन है। द्वितीय काण्ड में ४३ गाथाओं में दर्शन-ज्ञान की मीमांसा की गई है। तृतीय खण्ड में ६६ गाथायें हैं जिनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तथा अनेकांत की दृष्टि से शेयतत्व का विवेचन है। यहाँ जिनवचन को मिथ्यादर्शनों का समूह कहा गया है। १. अभयदेवसूरि की टोकासहित पंडित सुखलाल और पंडित बेचरदास द्वारा संपादित; पुरातत्वमंदिर, अहमदाबाद से वि० सं० १९८०, १९८२, १९८४, १९८५, और १९८७ में प्रकाशित । गजराती अनुवाद, विवेचन और प्रस्तावना के साथ पूंजाभाई जैन ग्रंथमाला की ओर से सन् १९३२ में, तथा अंग्रेजी अनुवाद और प्रस्तावना के साथ श्वेतांबर एज्युकेशन बोर्ड की ओर से सन् १९३९ में प्रकाशित । २. भई मिच्छादसणसमूहमइअस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाइमग्गस ॥ ३-६९ विशेषावश्यकभाष्य (गाथा ९५४ ) में मिथ्यास्वमयसमूह को सम्यक्त्व मान कर पर-सिद्धान्त को ही स्वसिद्धान्त बताया गया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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