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________________ प्राकृत भाषायें अलग-अलग नाम दिये हैं। नाटककारों और अलंकारशास्त्र के पंडितों ने भी इन प्राकृतों के विविध रूप प्रदर्शित किये हैं। दरअसल प्राकृत बोलियों के बोलचाल की भाषा न रह जाने के कारण इन बोलियों का रूप नियत करने में बड़ी कठिनाई हो रही थी। विविध रूप में बिखरे हुए प्राकृत साहित्य को पढ़-पढ़ कर ही व्याकरणकार अपने सूत्रों की रचना करते थे। इससे वैयाकरणों ने प्राकृत की बोलियों का जो विवेचन किया वह बड़ा अस्पष्ट और अपूर्ण रह गया । इन व्याकरणों को पढ़ कर यह पता नहीं चलता कि कौन से ग्रन्थों का विश्लेषण कर के इन नियमों की रचना की गई है, तथा अश्वघोष के नाटक, खरोष्ट्री लिपि का धम्मपद, अर्धमागधी के जैन आगम आदि की प्राकृतों का. वास्तव में क्या स्वरूप था । अवश्य ही अठारहवीं शताब्दी में रामपाणिवाद आदि प्राकृत साहित्य के उत्तरकालीन लेखकों ने इन व्याकरणों का अध्ययन कर अपनी रचनायें प्रस्तुत की; लेकिन ऐसी रचनायें केवल उँगलियों पर गिनने लायक हैं। भरतनाट्यशास्त्र (१७-४८) में मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्नीका और दाक्षिणात्या नाम की सात प्राकृत भाषायें गिनाई गई हैं, यद्यपि इनके सम्बन्ध में यहाँ विशेष जानकारी नहीं मिलती। आगे चल कर संस्कृत के नाटककारों ने अपने पात्रों के मुँह से भिन्न-भिन्न बोलियाँ कहलवाई हैं और व्याकरणकारों ने इन बोलियों का विवेचन किया है, लेकिन इससे प्राकृतों का भाषाशास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने में जरा भी सहायता नहीं मिलती | व्याकरणकारों में प्राकृत बोलियों का विस्तृत विवेचन करनेवालों में वररुचि का नाम सर्वप्रथम आता है । उनके अनुसार प्राकृत (जिसे आगे चल कर महाराष्ट्री नाम दिया गया है), पैशाची, मागधी और शौरसेनी ये चार प्राकृत भाषायें हैं।' इस सम्बन्ध में ध्यान देने की बात है कि १. राजशेखर ने काव्यमीमांसा (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से सन् १९५४ में प्रकाशित, पृष्ठ १४ ) में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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